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“मैं पल दो पल का शायर हूं” : साहिर

कविता, गज़ल, शायरी एक ऐसा ज़रिया है जिसके माध्यम से किसी की भी रूह से रिश्ता जोड़ा जा सकता है। यहां शायरी के बेताज बादशाह साहिर का नाम लिया जाए तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। उन्होंने अपनी क़लम की ताकत से अपनी दिल से निकली ईबारतों को शब्दों में इस तरह पिरोया कि आज भी उनका कोई सानी नहीं। उनके गीतों व ग़ज़लों में उनकी रूह की आवाज़ को सुना जा सकता है। अपने ऐसे ही एक चर्चित गीत में उन्होंने कुछ इस अंदाज़ में कहा –

“मैं पल दो पल का शायर हूं

पल दो पल मेरी कहानी है

पल दो पल मेरी हस्ती है

पल दो पल मेरी जवानी है

मैं पल दो पल का शायर हूं”

साहिर ये नहीं जानते थे कि वो अपनी लेखनी के ज़रिए अपने आप को अमर कर जाएंगे। सच ही कह गया था वो प्यार का परवाना जिसने बेपनाह इश्क के दर्द को अपनी शायरी में पिरोया और ज़िंदगी की तमाम ठोकरों के बावजूद उन्होंने अपने आप को इतना मज़बूत बना लिया कि जब तक वो जिए अपने चाहने वालों के दिल पर राज करते रहे। उनकी इस नज़्म में उनके जज़्बात इस तरह हैं-

मेरे नदीम मेरे हमसफ़र उदास न हो
कठिन सही तेरी मन्जिल मगर उदास न हो
कदम कदम पे चट्टानें खडी़ रहें लेकिन
जो चल निकले हैं दरिया तो फिर नहीं रुकते
हवाएँ कितना भी टकराएँ आँधियाँ बनकर
मगर घटाओं के परछम कभी नहीं झुकते
मेरे नदीम मेरे हमसफ़र…

साहिर लुधियानवी का जन्म 8 मार्च, 1921 लुधियाना, में एक मुस्लिम परिवार में हुआ था। उनके वालिद एक जागीरदार थे, लेकिन उनकी कई पत्नियां थी। साहिर अपने वालिद की एकमात्र संतान थी जिस वजह से उनका पालन-पोषण बहुत अच्छे से हुआ। ऐसा कहा जाता है कि उनकी माता जी और पिता जी में अक्सर अनबन रहा करती थी जिस वजह से तंग आकर उनकी माता जी को उनसे अलग होना पड़ा और साथ ही साहिर भी अपनी मां के साथ अपना पिता की सब जागीर छोड़कर आ गए। बस यही दौर था जब साहिर की ज़िंदगी में परेशानियों का सिलसिला शुरु हुआ।

अगर उनकी शिक्षा की बात करें तो उन्होंने लुधियाना के खालसा हाई स्कूल से प्रारंभिक शिक्षा ग्रहण की और गवर्नमेंट कॉलेज से आगे की शिक्षा ग्रहण की लेकिन कॉलेज में जाते ही उनका दिल शायरा अमृता प्रीतम पर आ गया पर वो प्यार परवान न चढ़ सका। अमृता के परिवार वालों को आपत्ति थी क्योंकि साहिर मुस्लिम थे। बाद में अमृता के पिता के कहने पर उन्हें कॉलेज से निकाल दिया गया। जीविका चलाने के लिये उन्होंने तरह तरह की छोटी-मोटी नौकरियां कीं। बस वही दौर था जब साहिर के बेपरवाह इश्क ने क़लम का रूप ले लिया। कॉलेज से निकाले जाने के बाद साहिर ने 1943 में उन्होंने ‘तल्ख़ियां’ नाम से अपनी पहली शायरी की किताब प्रकाशित करवाई।

हिंदी सिनेमा में उभरता गीतकार: साहिर

‘तल्ख़ियां’ से साहिर को एक नई पहचान मिली। फिर क्या था जब तक वो जिए अपनी अपनी ज़बरदस्त कविता, शायरी और गीतों के बल पर वो सबके दिलों की ज़ुबां बन गए थे जिसका असर ये हुआ कि मुंबई फिल्मी नगरी ने इन्हें हाथोंहाथ ले लिया और हिंदी फिल्म जगत को एक के बाद एक बेहतरीन गीत देते चले गए। उस समय हिंदी सिनेमा पर इक़बाल, फैज़ और फिऱाक जैसे शायरों का राज था लेकिन साहिर के लिखने के अलग अंदाज़ ने उन्हें एक अलग पहचान दी।

उस समय ऐसा दौर था जब कोई भी फिल्मी गीत हिट होता तो उसका श्रेय गायक को मिलता था। एक अकेले साहिर ही ऐसे थे जिन्होंने इस चलन के खिलाफ आवाज़ उठाई जिसके बाद से ऑल इंडिया रेडियो में गीत पेश करने से पहले गायक के साथ गीतकारों के नाम भी दिए जाने लगे। उस वक्त एक अकेले साहिर ऐसे गायक थे जिन्हें उनके गानों के लिए रॉयल्टी मिलती थी। यहां तक वो अपने गीत के लिए लता मंगोश्कर को मिलने वाले मेहनताने से एक कुपया अधिक लेते थे।

भारतीय सिनेमा को साहिर ने ऐसे-ऐसे यादगार गीत दिए जिन्हें आज भी सुन लिया जाए तो मानों जन्नत मिल गई हो, सच्चे प्यार का ऐसा रूप जो जिस्मानी रिश्तों से परे रुहानी हो जाता है।

1

ये दिल तुम बिन, कहीं लगता नहीं, हम क्या करें
ये दिल तुम बिन, कहीं लगता नहीं, हम क्या करें
तसव्वुर में कोई बसता नहीं, हम क्या करें
तुम्ही कह दो, अब ऐ जानेवफ़ा, हम क्या करें

2

हम इन्तज़ार करेंगे तेरा क़यामत तक
ख़ुदा करे कि क़यामत हो और तू आए
यह इन्तज़ार भी एक इम्तिहान होता है

इसी से इश्क का शोला जवान होता है
यह इन्तज़ार सलामत हो और तू आए

3

रंग और नूर की बारात किसे पेश करूँ
ये मुरादों की हंसीं रात किसे पेश करूँ, किसे पेश करूँ

मैने जज़बात निभाए हैं उसूलों की जगह
अपने अरमान पिरो लाया हूँ फूलों की जगह
तेरे सेहरे की…
तेरे सेहरे की ये सौगात किसे पेश करूँ
ये मुरादों की हसीं रात किसे पेश करूँ, किसे पेश करूँ

यूं तो उनके फिल्मी सफर की शुरुआत 1948 में “आज़ादी की राह से हुई थी लेकिन ये फिल्म असफल रही। फिर उसके बाद 1951 में आई फिल्म “नौजवान’ के एक गीत से उन्हें प्रसिद्धी मिली। जिसके संगीतकार आर.डी.बर्मन थे। फिर इसके बाद साहिर ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा और बाज़ी, हमराज़, वक्त, ताजमहल, कभी-कभी, धूल का फूल, दाग़, बही-बेग़म, आदमी और इंसान, धुंध, प्यासा, मिलाप, मेरिन ड्राइव, लाईट हाउस, भाई-बहन, साधना, धूल का फूल, धर्म पुत्र व दिल्ली का दादा जैसी और भी कई फिल्मों के लिए गीत लिखे लेकिन इनमें से कई फिल्में ऐसी थी जिनके गीत आज भी जवां हैं।

साहिर ने शादी नहीं की लेकिन रुहानी प्यार के जज़्बात उनके अंदर इस क़दर भरे हुए थे जिन्हें उन्होंने अपने नग़मों के ज़रिए अमर बना दिया।

उनके कुछ ऐसे गीत भी यादगार रहे जिनसे प्रेरणा पाकर हर कोई धन्य हो जाए।

1

बाबुल की दुआएँ लेती जा,

जा तुझको सुखी संसार मिले

2

तू हिन्दू बनेगा न मुसलमान बनेगा
इंसान की औलाद है इंसान बनेगा

3

साथी हाथ बढ़ाना, साथी हाथ बढ़ाना
एक अकेला थक जाएगा मिल कर बोझ उठाना
साथी हाथ बढ़ाना

सम्मान-

साहिर को अपने गीतों के लिए कई बड़े पुरस्कारों से भी नवाज़ा गया। फ़िल्म ‘ताजमहल’ के बाद कभी कभी फ़िल्म के लिए उन्हें उनका दूसरा फ़िल्म फेयर अवार्ड मिला। साहिर जी को पद्म श्री से भी सम्मानित किया गया। लेकिन उन्हें वैवाहिक जीवन का सुख नहीं मिला, अमृता प्रीतम के बाद अभिनेत्री सुधा मल्होत्रा के साथ भी प्यार परवान नहीं चढ़ा। आख़िर 25 अक्तूबर, 1980 को दिल का दौरा पड़ने से वो हमेशा-हमेशा के लिए दुनियां को अलविदा कह कर चले गए।