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Poetry Breakfast: “वो शायर था, चुप सा रहता था”: गुलज़ार

उनकी नज़मों में समुंद्र सी गहराई है, जिसमें गोता खाए बिनां उनके अर्थ जानना नामुमकिन है। भाव भी इतने गहरे कि समझते जाओ और अर्थ रूपी बेश्कीमती हीरे ज्वाहरात समेटते जाओ, उनकी पुस्तक पुखराज पढ़कर आप कुछ ऐसा ही महसूस करेंगे। उनकी कविताओं में पूरी क़ायनात का ज़िक्र है, चांद, तारों का तिलिस्म है। उनकी पुस्तक रात पशमीने की में उनकी कविताएं कुछ ऐसा ही एहसास दिलाती हैं। गुलज़ार जिनका असल नाम संपूर्ण सिंह कालरा है, जो कि एक प्रसिद्ध गीतकार, कवि, पटकथा लेखक, फिल्म निर्देशक व नाटककार हैं। उन्होंने अपनी रचनाएं हिन्दी, उर्दू, पंजाबी, ब्रज भाषा, खड़ी बोली, मारवाड़ी और हरियाणवी में लिखीं। बटवारे के समय पाकिस्तान से अमृतसर आकर बसे एक सिक्ख परिवार में गुलज़ार साहब का जन्म हुआ। कविता पढ़ने और लिखने का शौंक उनको बचपन से ही था अपने खाली समय में अक्सर वो कवितायें लिखा करते थे। अमृतसर से गुलज़ार मुंबई आ गए और एक कार गैरेज में बतौर मेकैनिक काम करने लगे लेकिन कविताएं वो अब भी लिखा करते थे। 60 के दशक में उन्होंने मुंबई फिल्म नगरी में शिरकत की और बिमल रॉय, ह्रषिकेश मुखर्जी व हेमंत कुमार के साथ सहायक के तौर पर काम करने का मौका भी मिल गया। फिल्म बंदगी में गुलज़ार ने अपना पहला गीत लिखा। उसके बाद उनकी कलम चलती ही गई और वो एक के बाद एक हिट गीत लिखते ही चले गए और आज भी उनकी कलम अपना जादू चला रही है।

गुलज़ार त्रिवेणी छ्न्द के सृजक हैं। उनको सहित्य अकादमी पुरस्कार, पद्म भूषण, सर्वश्रेष्ठ गीत का ऑस्कर पुरस्कार, ग्रैमी पुरस्कार, दादा साहब फाल्के सम्मान मिल चुके हैं। उनकी चर्चित रचनाएं हैं: चौरस रात (लघु कथाएँ, 1962), जानम (कविता संग्रह, 1963), एक बूँद चाँद (कविताएँ, 1972), रावी पार (कथा संग्रह, 1997), रात, चाँद और मैं (2002), रात पश्मीने की, खराशें (2003), पुखराज, कुछ और नज़्में, यार जुलाहे, त्रिवेणी,  छैंया-छैंया , मेरा कुछ सामान हैं।

पेश है उनकी कुछ नज़्में…

फिर कोई नज़्म कहें

आओ फिर नज़्म कहें

फिर किसी दर्द को सहलाकर सुजा ले आंखें

फिर किसी दुखती रग में छुपा दें नश्तर

या किसी भूली हुई राह पे मुड़कर एक बार

नाम लेकर किसी हमनाम को आवाज़ ही दे लें

फिर कोई नज़्म कहें

2.

वक्त को आते न जाते न गुज़रते देखा!

वक़्त को आते न जाते न गुजरते देखा,

न उतरते हुए देखा कभी इलहाम की सूरत,

जमा होते हुए एक जगह मगर देखा है.

शायद आया था वो ख़्वाब से दबे पांव ही,

और जब आया ख़्यालों को एहसास न था.

आँख का रंग तुलु होते हुए देखा जिस दिन,

मैंने चूमा था मगर वक़्त को पहचाना न था.

चंद तुतलाते हुए बोलों में आहट सुनी,

दूध का दांत गिरा था तो भी वहां देखा,

बोस्की बेटी मेरी ,चिकनी-सी रेशम की डली,

लिपटी लिपटाई हुई रेशम के तागों में पड़ी थी.

मुझे एहसास ही नहीं था कि वहां वक़्त पड़ा है.

पालना खोल के जब मैंने उतारा था उसे बिस्तर पर,

लोरी के बोलों से एक बार छुआ था उसको,

बढ़ते नाखूनों में हर बार तराशा भी था.

चूड़ियाँ चढ़ती-उतरती थीं कलाई पे मुसलसल,

और हाथों से उतरती कभी चढ़ती थी किताबें,

मुझको मालूम नहीं था कि वहां वक़्त लिखा है.

वक़्त को आते न जाते न गुज़रते देखा,

जमा होते हुए देखा मगर उसको मैंने,

इस बरस बोस्की अठारह बरस की होगी.

Gulzar-With-Tennis-Racket

3.

किताबें!

किताबें झाँकती हैं बंद आलमारी के शीशों से,

बड़ी हसरत से तकती हैं.

महीनों अब मुलाकातें नहीं होतीं,

जो शामें इन की सोहबत में कटा करती थीं.

अब अक्सर …….

गुज़र जाती हैं ‘कम्प्यूटर’ के पदों पर.

बड़ी बेचैन रहती हैं किताबें ….

इन्हें अब नींद में चलने की आदत हो गई है

बड़ी हसरत से तकती हैं,

जो क़दरें वो सुनाती थीं,

कि जिनके ‘सेल’ कभी मरते नहीं थे,

वो क़दरें अब नज़र आतीं नहीं घर में,

जो रिश्ते वो सुनाती थीं.

वह सारे उधड़े-उधड़े हैं,

कोई सफ़ा पलटता हूँ तो इक सिसकी निकलती है,

कई लफ़्ज़ों के मानी गिर पड़े हैं.

बिना पत्तों के सूखे ठूँठ लगते हैं वो सब अल्फ़ाज़,

जिन पर अब कोई मानी नहीं उगते,

बहुत-सी इस्तलाहें हैं,

जो मिट्टी के सकोरों की तरह बिखरी पड़ी हैं,

गिलासों ने उन्हें मतरूक कर डाला.

ज़ुबान पर ज़ायका आता था जो सफ्हे पलटने का,

अब ऊँगली ‘क्लिक’ करने से बस इक,

झपकी गुज़रती है,

बहुत कुछ तह-ब-तह खुलता चला जाता है परदे पर,

किताबों से जो ज़ाती राब्ता था, कट गया है.

कभी सीने पे रख के लेट जाते थे,

कभी गोदी में लेते थे,

कभी घुटनों को अपने रिहल की सूरत बना कर.

नीम-सजदे में पढ़ा करते थे, छूते थे जबीं से,

वो सारा इल्म तो मिलता रहेगा आइन्दा भी.

मगर वो जो किताबों में मिला करते थे सूखे फूल,

और महके हुए रुक्क़े,

किताबें माँगने, गिरने, उठाने के बहाने रिश्ते बनते थे,

उनका क्या होगा ?

वो शायद अब नहीं होंगे !

4.

त्रिवेणी-1

उड़ के जाते हुए पंछी ने बस इतना ही देखा
देर तक हाथ हिलती रही वह शाख़ फ़िज़ा में

अलविदा कहने को ? या पास बुलाने के लिए ?

5.

त्रिवेणी-2

क्या पता कब कहाँ मारेगी ?
बस कि मैं ज़िंदगी से डरता हूँ

मौत का क्या है, एक बार मारेगी

6.

रात पशमीने की (गुलज़ार)

बोस्की-1

बोस्की ब्याहने का समय अब करीब आने लगा है

जिस्म से छूट रहा है कुछ कुछ

रूह में डूब रहा है कुछ कुछ

कुछ उदासी है, सुकूं भी

सुबह का वक्त है पौ फटने का,

या झुटपुटा शाम का है मालूम नहीं

यू भी लगता है जो मोड़ भी अब आएगा

वो किसी और तरफ मुड़ के चली जाएगी

उगते हुए सूरज की तरफ

और मैं सीधा ही कुछ दूर अकेला जा कर

शाम के दूसरे सूरज में समा जाऊंगा।

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7.

क़ायनात-1

बस चन्द करोड़ों सालों में

सूरज की आग बुझेगी जब

और राख उड़ेगी सूरज से

जब कोई चांद न डूबेगा

और कोई जमीं न उभरेगी

तब ठंडा बुझा इक कोयला सा

टूकड़ा ये ज़मीं का घूमेगा

भटका भटका

मद्धम खकिसत्री रोशनी में

मैं सोचता हूं उस वक्त अगरड

काग़ज पे लिखा इक नज़्म कहीं उडते उड़ते

सूरज में गिरे

तो सूरज फिर से जलने लगे !!

8.

वो शायर था चुप सा रहता था

वो शायर था चुप सा रहता था

बहकी-बहकी सी बातें करता था

आंखें कानों पे रख के सुनता था

गूंगी खामोशियों की आवाज़ें

जमा करता था चांद के साए

और गीली सी नूर की बूंदें

रूखे-रूखे से रात के पत्ते

ओक से भरके खरखराता था

वक़्त के इस अंधेरे जंगल में

कच्चे-पक्के से लम्हे चुनता था

हां वही, वो अजीब सा शायर

रात को उठके कोहनियों के बल

चांद की ठोडी चूमा करता था

चांद से गिर के मर गया है वो

लोग कहते हैं खुदकुशी की है।