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श्री भगवदगीता के इन श्लोकों से मिलती है आत्मिक-शांति !

श्रीमद्भाभगवत गीता में छिपा है जीवन का सार, जिसे स्वयं श्री कृष्ण ने अर्जुन को समझाया। ये ग्रंथ दुनियां के श्रेष्ठ ग्रंथों में से एक हैं। गीता शास्त्र द्वारा हमें अपने हर सवाल का जवाब मिल जाता है। अन्त में ये भी समझ में आता हैं कि बुद्धि को हमेशा सूक्ष्म करते हुए महाबुद्धि यानि आत्मा में लगाये रखिए तथा संसार के कर्म अपने स्वभाव के अनुसार सरल रूप से करते रहें। प्रत्येक मनुष्य का स्वभाव के अनुसार कर्म करना आसान है लेकिन दूसरे के स्वभाव के अनूसार कर्म को अपनाकर चलना कठिन है क्योंकि हरेक जीव अलग-अलग प्रकृति को लेकर जन्मा है, जीव जिस प्रकृति को लेकर संसार में आया है उसमें सरलता से उसका निर्वाह हो जाता है।

आइए पढ़ते हैं  इन 18 अध्यायों में से अर्थ सहित कुछ चुनिंदा श्लोकः

  1. यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत:।
    अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥
    (चतुर्थ अध्यायश्लोक 7)इस श्लोक का अर्थ है: हे भारत (अर्जुन), जब-जब धर्म ग्लानि यानी उसका लोप होता है और अधर्म में वृद्धि होती है, तब-तब मैं (श्रीकृष्ण) धर्म के अभ्युत्थान के लिए स्वयम् की रचना करता हूं अर्थात अवतार लेता हूं।
  2. परित्राणाय साधूनाम् विनाशाय च दुष्कृताम्।
    धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे-युगे॥
    (चतुर्थ अध्यायश्लोक 8)इस श्लोक का अर्थ है: सज्जन पुरुषों के कल्याण के लिए और दुष्कर्मियों के विनाश के लिए… और धर्म की स्थापना के लिए मैं (श्रीकृष्ण) युगों-युगों से प्रत्येक युग में जन्म लेता आया हूं।

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  1. यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जन:।
    स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते॥
    (तृतीय अध्यायश्लोक 21)इस श्लोक का अर्थ है: श्रेष्ठ पुरुष जो-जो आचरण यानी जो-जो काम करते हैं, दूसरे मनुष्य (आम इंसान) भी वैसा ही आचरण, वैसा ही काम करते हैं। वह (श्रेष्ठ पुरुष) जो प्रमाण या उदाहरण प्रस्तुत करता है, समस्त मानव-समुदाय उसी का अनुसरण करने लग जाते हैं।
  1. नैनं छिद्रन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावक: ।
    न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुत ॥
    (द्वितीय अध्याय, श्लोक 23)इस श्लोक का अर्थ है: आत्मा को न शस्त्र काट सकते हैं, न आग उसे जला सकती है। न पानी उसे भिगो सकता है, न हवा उसे सुखा सकती है। (यहां भगवान श्रीकृष्ण ने आत्मा के अजर-अमर और शाश्वत होने की बात की है।)

2-RELIGION-&-ASTROLOGY-Krishna-Arjun-Samvad

 

  1. हतो वा प्राप्यसि स्वर्गम्जित्वा वा भोक्ष्यसे महिम्।
    तस्मात् उत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चय:॥
    (द्वितीय अध्यायश्लोक 37)  इस श्लोक का अर्थ है: यदि तुम (अर्जुन) युद्ध में वीरगति को प्राप्त होते हो तो तुम्हें स्वर्ग मिलेगा और यदि विजयी होते हो तो धरती का सुख को भोगोगे… इसलिए उठो, हे कौन्तेय (अर्जुन), और निश्चय करके युद्ध करो। (यहां भगवान श्रीकृष्ण ने वर्तमान कर्म के परिणाम की चर्चा की है, तात्पर्य यह कि वर्तमान कर्म से श्रेयस्कर और कुछ नहीं है।
  2. कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
    मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥
    (द्वितीय अध्याय, श्लोक 47)इस श्लोक का अर्थ है: कर्म पर ही तुम्हारा अधिकार है, लेकिन कर्म के फलों में कभी नहीं… इसलिए कर्म को फल के लिए मत करो और न ही काम करने में तुम्हारी आसक्ति हो। (यह श्रीमद्भवद्गीता के सर्वाधिक महत्वपूर्ण श्लोकों में से एक है, जो कर्मयोग दर्शन का मूल आधार है।) 
  3. क्रोधाद्भवति संमोह: संमोहात्स्मृतिविभ्रम:।
    स्मृतिभ्रंशाद्बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति॥
    (द्वितीय अध्याय, श्लोक 63)इस श्लोक का अर्थ है: क्रोध से मनुष्य की मति मारी जाती है यानी मूढ़ हो जाती है जिससे स्मृति भ्रमित हो जाती है। स्मृति-भ्रम हो जाने से मनुष्य की बुद्धि नष्ट हो जाती है और बुद्धि का नाश हो जाने पर मनुष्य खुद अपना ही का नाश कर बैठता है।