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तो इस दिवाली पापा क्या तोहफा देंगे…!

मुझे आज भी याद है बचपन में दिवाली का कितना इंतज़ार रहता था मुझे और मेरे भाई को। असल में हर दिवाली पिता जी मुंहमांगी गिफ्ट्स जो लेकर दिया करते थे…हा हा। पिता जी काफी सख्त किस्म के थे इसलिए उनके आगे ज़ुबान खोलने का रिस्क हम दोनों बहन-भाई ले ही नहीं सकते थे। लेकिन पिता जी जैसे अंतर्यामी थे उनके आस-पास पापाजी कहकर और एक प्यारी सी मुस्कान लिए मंडराते रहने का मतलब वो सब समझ ही जाते थे कि हमें कुछ चाहिए। दिवाली पर मुझे तो इंतज़ार रहता था एक सुंदर सी फ्रॉक, एक गुड़िया और कुछ फुलझड़ियां बस, हां… लेकिन जैसी मुझे गुड़िया चाहिए होती थी न, वो होती थी पलकें झपकने वाली और जिसके सुनहरी बाल भी हों, और बातें भी करती हो, क्योंकि मेरी एक दोस्त थी रेनू उसके पास ठीक वैसी ही गुड़िया थी, दिखने में वो काफी महंगी भी थी। उसने बताया था कि विदेश से उसकी बुआ ने उसके लिए भेजी है। हम लोग जब रोज़ घर-घर खेलते थे न, तब मेरी वो पहले वाली गुड़िया न तो पलकें झपकती थी और न ही मुझसे बातें किया करती। मैं सिर्फ उसकी गुड़िया को ही निहारती रहती जब वो उसे तैयार कर रही होती थी। इस बार कंजकों में मेरे काफी पैसे जुड़ गए थे सोचा था कि पापा को ये पैसे देकर कहुंगी कि पापा मुझे रेनू जैसी गुड़िया दिला देना। शायद उस वक्त मैं दूसरी कक्षा में पढ़ती थी।

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आखिर वो दिन आ ही गया जब पापा हम सबको दिवाली की शॉपिंग कराने ले गए। हम दोनों बहन-भाई मन ही मन मुस्कुराते हुए साथ चले और चमचमाते बाज़ार को कैसे निहारते जाते जैसे किसी सितारों वाले शहर में आ गए हों और जिस दुकान से शॉपिंग कराते वहां की जो सबसे खूबसूरत फ्रॉक होती पापा मुझे वो ही दिलाते लेकिन काफी दुकानें देखने के बाद भी मेरी मनपसंद गुड़िया मुझे कहीं नहीं दिखी जबकि जो गुड़िया मुझे चाहिए थी उससे भी बेहतर गुड़ियां उस दुकानदार के पास थी लेकिन मुझे तो चाहिए थी वो रेनू वाली गुड़िया। खैर एक नईं गुड़िया लेकर घर वापिस आ गए लेकिन मुझे वो पसंद नहीं थी। पापा समझ गए थे और अगले दिन ऑफिस से आकर फिर बाज़ार गए और मेरी मनपसंद गुड़िया ढूंढने गए पर वैसी गुड़िया कहीं नहीं मिली। खैर, कुछ दिन उस नईं गुड़िया से नाराज़ होने के बाद मैने उसे अपना ही लिया और उसके साथ भी खेलना शूरु कर दिया। हा हा… आज याद आता है कि वो पिता ही थे जिन्हें मेरी हर पसंद नापसंद का कितना पता था। मेरे चेहरे से ही पहचान जाते थे कि मुझे क्या चाहिए ? यहां गानें की वो पंक्तियां बिल्कुल सटीक बैठती हैं…

पापा जल्दी आ जाना,

सात समंदर पार से..

गुड़ियों के बाज़ार से..

छोटी सी गुड़िया लाना..

गुड़िया चाहे ना लाना

पर पापा जल्ली आ जाना…

खैर, बात तो असल में आपके साथ ये करने वाली थी कि मां-बाप की ओर से लेकर दिया हुआ तोहफा कितना कीमती होता हैं न…और बच्चों की दुनियां सिर्फ अपने मां-बाप के इर्द-गिर्द ही घूमती हैं। इसलिए इस दिवाली बच्चों के कहे बिना ही कोई ऐसा तोहफा लेकर दें जो उन्हें पसंद हो और वो आपसे कह न पा रहें हो। देखना उनके चेहरे पर आई वो मुस्कान आपको जितना सुकून दे जाएगी उसका कोई जवाब ही नहीं।

लेखक – मनुस्मृति लखोत्रा