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अंदर का ज़हर चूम लिया धुल के आ गए, कितने शरीफ़ लोग थे सब खुल के आ गएः डॉ. राहत इंदौरी

ग़ज़ल तब और भी खूबसूरत हो जाती है जब उसे कहने वाला इशारों ही इशारों में ग़ज़ल की गहराई को आप तक पहुंचा दे। यहां डॉ. राहत इंदौरी का नाम कहना ग़लत न होगा। उनका वो ग़ज़ल बयां करने का अंदाज़ कुछ ऐसा कि सुनने वाले के दिल से वाह-वाह खुद-ब-खुद निकल उठती है। उनकी ग़ज़ल के हर शेर महोब्बत के हर फलसफे पर खरे उतरते हैं, जहां से बेपनाह मोहब्बत की शुरुआत होती है। आईए POETRY BREAKFAST में आज की चाय डॉ. राहत इंदौरी की शायरी के साथ ली जाए।

डॉ. राहत इंदौरी के चुनिंदा शेयर…

शायरी 1

हम से पहले भी मुसाफ़िर कई गुज़रे होंगे
कम से कम राह के पत्थर तो हटाते जाते

एक ही नद्दी के हैं ये दो किनारे दोस्तो
दोस्ताना ज़िंदगी से मौत से यारी रखो

घर के बाहर ढूँढता रहता हूँ दुनिया
घर के अंदर दुनिया-दारी रहती है

शहर क्या देखें कि हर मंज़र में जाले पड़ गए
ऐसी गर्मी है कि पीले फूल काले पड़ गए

शायरी 2

अजीब लोग हैं मेरी तलाश में मुझको,
वहाँ पर ढूंढ रहे हैं जहाँ नहीं हूँ मैं,
मैं आईनों से तो मायूस लौट आया था,
मगर किसी ने बताया बहुत हसीं हूँ मैं।

आँख में पानी रखो होंटों पे चिंगारी रखो
ज़िंदा रहना है तो तरकीबें बहुत सारी रखो
एक ही नदी के हैं ये दो किनारे दोस्तो,
दोस्ताना ज़िंदगी से मौत से यारी रखो।

​तेरी हर बात ​मोहब्बत में गँवारा करके​,
​दिल के बाज़ार में बैठे हैं खसारा करके​,
​मैं वो दरिया हूँ कि हर बूंद भंवर है जिसकी​,​​
​तुमने अच्छा ही किया मुझसे किनारा करके।

उसे अब के वफ़ाओं से गुजर जाने की जल्दी थी,
मगर इस बार मुझ को अपने घर जाने की जल्दी थी,
मैं आखिर कौन सा मौसम तुम्हारे नाम कर देता,
यहाँ हर एक मौसम को गुजर जाने की जल्दी थी।

शायरी 3

रोज़ पत्थर की हिमायत में ग़ज़ल लिखते हैं
रोज़ शीशों से कोई काम निकल पड़ता है

मैंने अपनी खुश्क आँखों से लहू छलका दिया,
इक समंदर कह रहा था मुझको पानी चाहिए।

बहुत ग़ुरूर है दरिया को अपने होने पर
जो मेरी प्यास से उलझे तो धज्जियाँ उड़ जाएँ

नए किरदार आते जा रहे हैं
मगर नाटक पुराना चल रहा है

शायरी 4

अंदर का ज़हर चूम लिया धुल के आ गए
कितने शरीफ़ लोग थे सब खुल के आ गए

कॉलेज के सब बच्चे चुप हैं काग़ज़ की इक नाव लिए
चारों तरफ़ दरिया की सूरत फैली हुई बेकारी है

कहीं अकेले में मिल कर झिंझोड़ दूँगा उसे
जहाँ जहाँ से वो टूटा है जोड़ दूँगा उसे

नींद से मेरा ताल्लुक़ ही नहीं बरसों से
ख़्वाब आ आ के मेरी छत पे टहलते क्यूं हैं

एक चिंगारी नज़र आई थी बस्ती में उसे
वो अलग हट गया आँधी को इशारा कर के

इन रातों से अपना रिश्ता जाने कैसा रिश्ता है
नींदें कमरों में जागी हैं ख़्वाब छतों पर बिखरे हैं