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Happiness is Free: पांव तले ज़मीं देने वाले वो फरिश्ते…!

थैंक्स शब्द अगर देखा जाए तो इसकी अहमियत बहुत ज्यादा है लेकिन कई बार सिर्फ थैंक्स कहकर अपनी भूमिका अदा कर देना थोड़ा स्वार्थी भी लगता है, जब आपकी ज़िंदगी के अहम समय में किसी ने आपके पांव तले ज़मीं दे दी हो। उनका शुक्रिया अदा करने के लिए शब्द भी कम पड़ते हैं। ऐसे में उन्हें भूला देना उनके साथ बेईमानी होगी।

संघर्ष एक वो ज़रिया है जिसमें से हम सबको होकर गुज़रना होता है, जिसकी अहमियत इतनी… कि इसमें तपते-तपते कब आप खरा सोना बनकर निकल आएंगे ये आपको भी नहीं पता चलेगा बशर्ते आप अपने फोकस पर डटे रहें।

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मेरा खुद का जीवन भी बहुत संघर्षभरा रहा है, खैर वो आज भी है…लेकिन मैं सोचती हूं ऐसे कितने लोग थे जो एकदम फरिश्ता बनकर आए और रास्ता दिखाकर चले गए, आज उन्हें ढूंढती हूं तो कईयों के कॉन्टेक्ट नंबर्स नहीं हैं। फेसबुक पर वो लोग मिल नहीं सकते क्योंकि शायद उम्र के साथ उनकी आंखें अब इतना काम नहीं करती इसलिए सोसल मीडिया पर भी उन्हें ढूंढ पाना मुश्किल है, उनमें से एक थे, जिन्होंने मुझे कहा था “तुम मास कॉम कर लो” और अगले दिन यूनिवरसिटी से फॉर्म मंगवा कर भरने के लिए भेज दिया था।

एक मेरी दोस्त, एक समय ऐसा था जब मेरे पास नौकरी नहीं थी उनके ये शब्द “अरे तुम फिक्र मत करो, मैं हूं न… तुम सिर्फ अपने काम पर फोकस करो बाकी मैं देख लूंगी”।

मेरी माता जी  आज भी मेरी प्रेरणा हैं… जब भी उनसे फोन पर बात करती हूं तो अक्सर उस दिन पढ़े रामायण के अध्याय का जिक्र करती हैं। कॉलेज के दिनों से ही कभी कोई भी मुश्किल आई तो किसी न किसी पौराणिक कथा को सुनाकर कठिन परिस्थितियों से निकलने के लिए प्रोत्साहित करती हैं। वैसे आजकल उनकी चर्चा का विषय श्रीमदभागवत कथा है।

मैं आपके साथ बात उन खास लोगों के बारे में करने जा रही हूं जिनकी नसीहत पर आपने कब ज़िंदगी का कोई बड़ा फैसला ले लिया होगा और कहीं न कहीं आप पर ऐसा भी वक्त आया होगा जब अपनों ने आपसे किनारा कर लिया होगा और उन लोगों ने आपका हाथ थाम कर कहां होगा अरे फिक्र मत करो मैं हूं न !…. हम लोग भी न, संघर्ष की सीढ़ियां चढ़ते-चढ़ते उन्हें थैंक्स कहना कब भूल जाते हैं पता ही नहीं चलता। आज आप जिस मुकाम पर हैं याद कीजिए शुरुआत से अब तक ऐसे कितने लोग आपकी ज़िंदगी में फरिश्ते की तरह आए होंगे और कब आपको रास्ता दिखाते हुए अचानक से आपकी ज़िंदगी से गुम हो गए। याद कीजिए वो लोग क्या पता आपके अपनों से ज्यादा आपके काम आए हों। ये लोग एक पेड़ की तरह होते हैं जो बिना किसी शर्त के आपके सफर के दौरान अपनी छांव देते हैं और हम लोग मुसाफिर की तरह कड़कती धूप में उनकी छांव लेकर आगे बढ़ जाते हैं और पीछे मुड़कर उस पेड़ को कभी देखते तक नहीं।

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याद रखें कि जब हम किसी मुकाम पर पहुंच जाते हैं तब शायद हमारा रुतबा एक इमारत की सबसे ऊंची चोटी जितना क्यों न हो जाए लेकिन ये जरूर याद रखना चाहिए कि यहां तक पहुंचने में किसने हमारी मदद की थी। ऐसे में हमारा फर्ज़ तो बनता हैं न कि पांव तले ज़मीं देने वाले उन फरिश्तों का हाल भी जान लिया जाए !

 

लेखिका- मनुस्मृति लखोत्रा