हमारे देश में शादी को एक पवित्र बंधन के रूप में देख जाता है। मान्यता ये भी है कि शादी का पवित्र बंधन सिर्फ एक जन्म ही नहीं बल्कि सात जन्मों तक का बंधन होता है। मां-बाप के लिए बेटी का कन्यादान महादान समझा जाता है, जहां बेटी एक घर छोड़कर दूसरा घर बसाती है, वहीं मां-बाप चाहे वो लड़की के हों या फिर लड़के के, दोनों अपनी हैसियत के मुताबिक अपने बच्चों की शादी पर खर्चा करते हैं। अपने सारे सपने, अरमान अपने बच्चों की शादी पर पूरा करते हैं
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लेकिन अब शादी का रिश्ता इन सब बातों से जैसे परे उठ चुका है और शायद अब ये बंधन जन्मों का बंधन नहीं रह गया है। इसलिए देखने में आया है कि बीते कुछ सालों में तलाक के मामले काफी बढ़ गए हैं। जहां शादी के रिश्ते में सहनशीलता, धैर्य, अपनापन, विश्वास, मान-सम्मान जैसी भावनाएं दम तोड़ती नज़र आ रही हैं। जहां ब्रेकअप्स व डिवोर्स का होना आम सी बात बन गई है। जहां पहले पारिवारिक डोर संबंधों को मजबूत करने का काम करती थी वहीं आज परिवार में दो लोग किसी तीसरे को अपने बीच दखल देने की अनुमति ही नहीं देते।ऐसे में अकेलापन ज्यादा बढ़ गया है। मां-बाप भी अपने बेटे या बेटी की शादी के बाद एकांकी जीवन व्यतीत कर रहें हैं क्योंकि उनकी जिम्मेदारी अब कोई उठाने को तैयार नहीं उधर बच्चे अपनी शादी के बाद एक-दूसरे के प्रति अपनी जिम्मेदारी से किनारा करते नज़र आ रहे हैं। ऐसे में शादी करने से पहले ही तलाक के लिए माइंड सेट बना कर लड़काया लड़की एक-दूसरे से संबंध जोड़ते नज़र आ रहे हैं।
कुछ साल पहले तक केवल पुरुष ही तलाक जैसे मामलों में निर्णय लेते नज़र आते थे लेकिन आज महिलाएं भी इस बारे में अपनी राय रखती हैं। कई मामले तो ऐसे भी देखे जा सकते हैं जहां महिलाएं ही उनके हक के लिए बने कानूनों का गलत फायदा उठाती नजर आती हैं। अब इसे कंमपेटिबिलिटी की कमी कहें, अडजस्टमेंट की दिक्कत कहें, बढ़ते एक्सट्रा मैरिटल अफेयर्स को जिम्मेदार ठहराएं, लाइफ इनसिक्योरिटी या फिर धैर्य व सहनशक्ति की कमी कहें, ऐसे कई मिले जुले कारण हो सकते हैं जिनकी वजह से ऐसे मामले आए दिन देखने में आ रहे हैं। सिचुएशन चाहे कोई भी हो ऐसे में पॉजिटिव तरीके से पेश आना ही नहीं चाहते।
पहले ग्रेंड पेरंट रिलेशंस को बचाने में काउंसिलर की भूमिका निभाते थे लेकिन अब इन रिश्तों की भूमिका न के बराबर ही रह गई है।
इस विषय पर अपनी राय रखते हुए कुछ लोगों का कहना है कि अब पहले जैसी सोच हमारे देश के युवाओं में भी नहीं रह गई है। वेस्टर्न सोसाइटी की ओर हम भी बढ़ते जा रहे हैं। जहां शादी होना याटूटना जैसे मामलों पर युवा आम सी बात समझते हैं। अपनी ज़िंदगी अपने तरीके और अपनी शर्तों पर ही जीना चाहते हैं जहां वे किसी मोड़ पर भी समझौता करने के लिए तैयार हीनहीं हैं। ऐसे में एक-दूसरे के लिए कुछ बातों पर समझौता करने की बजाए तलाकनामें पर समझौते के लिए तैयार हो जाते हैं और तलाक के बाद एक-दूसरे से बात करने पर उन्हें कोई प्रॉब्लम नहीं होती यहां तक कई लोग तो तलाक के बाद दोस्ती निभाते भी देखे गएहैं। पहले लड़कों में ये बात देखने में आती थी कि शादी के बाद भी एक्सट्रा मैरिटल अफेयर होने की लेकिन अब महिलाओं को भी ऐसा लगने लगा है कि उन्हें भी बेहतर ऑप्शन मिल सकता है वो क्यों कंप्रोमाइज़ करे??
ऐसे में सवाल ये उठता है कि शादी जैसे बंधन की बुनियाद पहले की तरह मजबूत कैसे की जाए? इसके लिए जिम्मेदार कौन ? सुधरना किसे होगा ? या फिर क्या हम समझ लें कि हम वेस्टर्नाइज़ हो चुके हैं। आपके पास इन प्रश्नों के उत्तर हों तो कृपया कमेंट बॉक्स में अपनी राय हमें ज़रूर दें।
मनुस्मृति लखोत्रा