ये जो ज़िंदगी है न बड़ी ही पेचीदा किस्म की है जिसे समझ पाना हर किसी के बस की बात नहीं होती। हमारी ख्वाहिशें तो बहुत सी हैं ज़िंदगी से…..कभी तो हम चाहते हैं कि ये चांद, तारे, ये सूरज… जगमगाते जुगनूओं की तरह हमारी ज़िंदगी को हमेशा रोशन करते रहें और ये सारा आसमान आकर हमारी मुट्ठी में समा जाए। दुनियां की सारी खूबसूरती…सारी रौनकें….बस हमारे चेहरे पर आकर समा जाए….मैं जो चाहूं बस वैसा ही हो जाए…मैं हमेशा जवां दिखूं…हमेशा मेरी दुनियां आबाद रहे…हमेशा मेरे अपने मेरे कहने पर…सिर्फ मेरी ही तरह चलें…लेकिन ऐसा कभी होता ही तो नहीं है…..शुक्र है इस ज़िंदगी ने हमें सपने रूपी बायोस्कोप दिया है जिसमें हम जो नहीं है या जो होना चाहते हैं वो हम देख सकते हैं…बिल्कुल मुंगेरीलाल के हसीन सपनों की तरह….हा हा……लेकिन मिलता वही है जो ज़िंदगी चाहती है।
ज़िंदगी से नाराज़गी और उसके करिश्माई फेरबदल के चक्कर से हैरानी तो आखिर होती ही है…लेकिन इसे बयां करने का जो हुनर है वो तो भई सिर्फ रूह से निकले शब्दों में दर्द और जान फूंकने वाले बेहतरीन शायर, गीतकार, निर्देशक और पटकथा लेखक गुलज़ार साहब के पास ही है।
आज मैं आपके साथ अपने फेवरेट गीत मासूम का ज़िक्र करने जा रही हूं। जिसे जितनी बार भी सुना जाए उतनी बार एक नई नसीहत दे जाता है। ये फिल्म 1983 में बड़ें पर्दे पर उतरी लेकिन इस फिल्म की पटकथा, कलाकारों की बेहतरीन अदायगी कहीं न कहीं आपकी हमारी ज़िंदगी की कहानी जैसी लगती है। हरेक की ज़िंदगी के कुछ अनसुलझे और अनकहे पहलू ज़रूर होते हैं। जहां आकर हम ज़िंदगी से हार जाते है और ज़िंदगी से ही सवाल कर बैठते हैं कि-
तुझसे नाराज़ नहीं ज़िन्दगी, हैरान हूं मैं
ओ हैरान हूं मैं
तेरे मासूम सवालों से परेशान हूं मैं
ओ परेशान हूं मैं
जीने के लिये सोचा ही न था, दर्द सम्भालने होंगे
मुस्कुराऊं तो, मुस्कुराने के कर्ज़ उठाने होंगे
मुस्कुराऊं कभी तो लगता है
जैसे होंठों पे कर्ज़ रखा है
तुझसे …
कई बार मन अंदर से दुखी भी होता है तो भी मुस्कुराना पड़ता है….और हम दिल के किसी तहखाने में अपने दर्द को दफ्न करके फिर से ज़िंदगी के साथ कदम से कदम मिलाकर चलने की कोशिश करने लग जाते हैं। ये माना कि लहू के आंसू पीना और होठों पर झूठी मुस्कान रखना आसान नहीं लेकिन दिल हल्का करने के लिए कुछ आंसू बचाकर रखना भी ज़रूरी है क्योंकि आपके अकेलेपन में ये आंसू ही किसी जाम की तरह छलकते जाते हैं और आपकी भावनाओं को आपके साथ सांझा करते हैं।
आज अगर भर आई हैं, बूँदें बरस जायेंगी
कल क्या पता इनके लिये आँखें तरस जायेंगी
जाने कब गुम कहाँ खोया
एक आँसू छुपाके रखा था
तुझसे …
वैसे फिल्म मासूम की पटकथा एक दम नईं किस्म की थी जिसने समाज के उस आईने को दर्शकों के सामने रखा जो तब तक सिर्फ छुपा हुआ हिस्सा ही था इसलिए इस फिल्म को दर्शकों के प्यार तो मिला ही लेकिन फिल्म के कलाकार भी लोगों के दिलों में अपनी एक अलग छाप छोड़ गए।
इस फिल्म ने अनकहे और छूपे हुए रिश्तों का आईना समाज के सामने रखा तो लाखों दिलों के दम तोड़ते प्यार भरे रिश्तों को ज़ुबां मिल गई हो जैसे। गुलज़ार साहब ने बड़े ही खूबसूरत तरीके से फिल्म की पटकथा के साथ ये गीत के लीरिक्स लिखकर इंसाफ किया है। कई बार रूहानी रिश्तों का एहसास हमें तब होता है जब वो हमारी ज़िंदगी में नहीं होते…होती हैं तो सिर्फ निशानियां…जो हर बार आपके गुज़रे वक्त के कुछ खूबसूरत पहलूओं से रूबरू करवाती हैं।
इस फिल्म में शबाना आज़मी और नसीरूद्दीन शाह की शादीशुदा ज़िंदगी में उस वक्त एक नया मोड़ आता है जब नसीर के छुपे प्यार की निशानी एक मासूम बच्चा यानि जुगल उनकी ज़िंदगी में आ जाता है। ऐसे में पिता न उसे अपने पास रख पाता है और न ही उसे छोड़ पाता है….बच्चा इतना प्यारा और मासूम है जो नसीर यानि अपने पिता के साथ ही रहना चाहता है…कहानी का अंत काफी इमोशनल और दिलचस्प है…ये फिल्म आपने भी कई बार देखी होगी….तो फिर आज क्यों न मेरे साथ आप भी ये गीत सुनें ?… तुझसे नाराज़ नहीं ज़िंदगी…
मनुस्मृति लखोत्रा