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धर्म एवं आस्थाः क्यों मनाई जाती हैं लोहड़ी, दुल्ला भट्ठी वाला कौन था ? जानिए पौराणिक कथा !

धर्म एवं आस्था डेस्कः पंजाब और हरियाणा में लोहड़ी का त्यौहार खूब धूमधाम से मनाया जाता है। खासतौर पर ये पंजाबियों का मुख्य त्यौहार है। ये मकर संक्रांति की एक दिन पहले नई फसल के उत्सव के रूप में मनाया जाता है। इस त्यौहार में खासतौर पर नववधू और बच्चे की पहली लोहड़ी बहुत विशेष होती है। लोहड़ी की रात खुली जगह या चौराहे पर अग्नि जलायी जाती है। लोहड़ी से कर्इ दिन पहले ही बच्चे घर-घर जाकर ‘लोहड़ी’ के लोकगीत गाकर पैसे और लोहड़ी मांगते हैं। अग्नि के आसपास परिवार व आस-पड़ोस के लोग लोकगीत गाते और गिद्दा भांगड़ा करते हुए खील, मक्का, गुड़, रेवड़ी, मूंगफली आदि अग्नि को अर्पित कर परिक्रमा करते हैं। परिवार और आसपास के लोग अग्नि की परिक्रमा करते हैं। रेवड़ी और मक्के के भुने दाने इस अग्नि में अर्पित करते हैं और प्रसाद के रूप में सभी को बांटते हैं। घर लौटते समय ‘लोहड़ी’ में से दो चार दहकते कोयले, प्रसाद के रूप में, घर लाने की परंपरा भी है। लोहड़ी से कर्इ कहानियां भी जुड़ी हैं। इनमें कुछ इस प्रकार हैं।

लोहड़ी को मनाए जाने के पीछे कई पौराणिक कथाएं जुड़ी हुई हैं जिनमें से लोहड़ी की परंपरा माता पार्वती की इस कथा से जुड़ी भी बतार्इ जाती है। जब माता ने दक्ष प्रजापति की पुत्री सती के रूप पिता के द्वारा किए अपमान से क्रोधित होकर खुद को योगाग्नि में दहन कर लिया उसके बाद ही परंपरा शुरू हुर्इ। मान्यता है कि माता सती की याद में ही यह अग्नि जलाई जाती है। इस अवसर पर विवाहिता पुत्रियों को मायके से ‘त्योहार’ भेजा जाता है जिसमें कपड़े, मिठाई, रेवड़ी, फल आदि शामिल होते हैं। इस परंपरा में यज्ञ के समय अपने जामाता शिव का भाग न निकालने का दक्ष प्रजापति का प्रायश्चित्त इसमें दिखाई देता है।

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लोहड़ी की एक अन्य लोककथा पंजाब में काफी मशहूर है। इस कथा में दुल्ला भट्टी नाम के चरित्र का रोचक ऐतिहासिक कथानक जुड़ा है। कहा जाता है कि पुराने समय में सुंदर एवं मुंदर नाम की दो अनाथ लड़कियां थीं। उनके चाचा ने राज्य के शक्तिशाली सूबेदार का कृपापात्र बनने के लिए उन बच्चियों को उसको सौंप दिया। दुल्ला भट्टी नाम का एक नामी डाकू उसी राज्य में था, जो अमीरों व घूसखोरों से धन लूटकर गरीबों की मदद किया करता था। जब उसको यह बात पता चली तो उसने दोनों लड़कियों को मुक्त करा कर दो अच्छे लड़के देखकर खुद ही पिता के रूप में उन दोनों का कन्यादान किया। इसके लिए उसने आसपास से लकड़ी एकत्रित करके आग जलार्इ और मिठाई की जगह रेवड़ी और मक्के जैसी चीजों का ही इस्तेमाल किया। तब से दुल्ला भट्टी की याद में यह त्योहार मनाया जाने लगा। ये नाम आज भी लोहड़ी के लोक गीतों में लिया जाता है और वो पंजाब में एक नायक की तरह याद किया जाता है।