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कुंभ का हैरतअंगेज़ आकर्षण क्यों हैं नागा साधु ! कहां रहता है नागा सन्यासियों का रहस्यमय संसार? आखिर क्यों करते हैं खुद का पिंड दान ? जानिए

धर्म एवं आस्थाः जब भी महाकुंभ, अर्धकुंभ या सिहंस्थ कुंभ की शुरुआत होती है तब-तब एक बड़ा सवाल और कुंभ को देखने का आकर्षण और भी गहरा जाता है। आकर्षण ऐसा जिसे देखने लोग दूर-दूर से आते हैं क्योंकि उनके दर्शन आम जनता के लिए दुर्लभ होते हैं। कुभ में वो अपने अखाड़ों के साथ शिरकत करते हैं, और बड़ा सवाल ये कि कुंभ खत्म होते ही वो अचानक से गायब हो जाते हैं, दरअसल, ये हैं नागा सन्यासी, जिनके दर्शन कुंभ में ही हो सकते हैं। लोगों में उन्हें देखने की आस्था और ऐसा हैरतअंगेज़ आकर्षण कि जहां से भी नागा साधु गुज़रते हैं लोग देखकर दंग रह जाते हैं लेकिन इसके बावजूद उनके पैरों की धूल उठाकर अपने घर ले जाते हैं। ये सन्यासी गेरूआं और सफेद वस्त्र धारण करने वाले सन्यासियों से एकदम अलग होते हैं। आम जनता से ये नागा साधु मिलते नहीं इनका रहस्यमयी संसार सिर्फ उनके अखाड़े तक ही सीमित होता है। इनकी वेशभूषा, हैरतअंगेज़ क्रियाकलाप, कठित साधना व जप-तप, रहस्मयी रहन-सहन, पल में गुस्सा-पल में शांत होना आदि क्रियाएं उन्हें सबसे जुदा करती हैं।
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कहते हैं कि नागा साधु बनने की प्रक्रिया भी बड़ी जटिल है नागा साधु बनना कोई आसान काम नहीं, इसके लिए कितने ही वर्षों तक कई कठिन प्रक्रियाओं से गुज़रना पड़ता है लेकिन इससे पहले ये जान लेना ज़रूरी है कि नागा साधु होते कौन हैं? इसे जानने के लिए हमने रिसर्च के आधार पर काफी जानकारी जुटाने की कोशिश की तब जाकर कही कुछ जवाल ढूंढ पाए हैं। जानकारी के मुताबिक नागा शब्द की उत्पत्ति संस्कृत से हुई, जिसका अर्थ होता है पहाड़, यानि पहाड़ पर रहने वाले सन्यासियों को नागा कहा जाने लगा, एक अन्य जानकारी के मुताबिक ‘नागा’ का अर्थ ‘नग्न’ रहने वाले व्यक्तियों से भी है वहीं कच्छारी भाषा में ‘नागा’ से तात्पर्य ‘एक युवा बहादुर लड़ाकू व्यक्ति’ से भी लिया जाता है।
नागा साधुओं के इतिहास की अगर बात करें तो आदि गुरु शंकराचार्य ने अखाड़ों की शुरुआत की थी ये वो समय था जब बाहरी आक्रमणकारियों ने देश में अपना बोलबाला बना रखा था और आम जनमानस उनसे तंग आकर त्राही-त्राही पुकार रहा था। ऐसे में गुरू शंकराचार्य ने सनातन धर्म की स्थापना की और देश के चार कोनों में चार पीठों का निर्माण किया, ये पीठ थे (गोवर्धन पीठ, शारदा पीठ, द्वारिका पीठ और ज्योतिर्मठ पीठ), लेकिन ये वो दौर था जब सिर्फ धार्मिक पूजा-पाठ व आध्यात्मिक शक्ति से बाहरी हमलावरों से निपटना आसान नहीं था। वो जनता, मंदिरों व मठों की संपत्ति लूट कर ले जाते थे। उनसे बचाव के लिए उस समय सश्स्त्र बल की ज़रूरत थी। इसलिए सनातन धर्म के विभिन्न संप्रदायों की सशस्त्र शाखाओं के रूप में आदिगुरु शंकराचार्य ने अखाड़ों की स्थापना की। जहां युवा साधुओं को शरीर से सुदृढ़ बनाना और हथियार चलाने में पारंगत किया जाने लगा ताकि वो अपनी रक्षा के साथ-साथ सनातन धर्म व आम जनमानस की रक्षा भी करें। इस तरह नागा साधु एक प्रकार के सैनिक थे जो मुश्किल की घड़ी में आम जनता व राजाओं को भी बचाने के लिए लड़ते थे। नागा साधु विभिन्न अखाड़ों में रहते हैं। इनके बारे में कहा जाता है कि ये तीन प्रकार के ऐसे योग करते है जिस वजह से वे ठंड में भी बिना कपड़ों के रह सकते हैं।
कहां है नागा सन्यासियों का रहस्यमय संसार?

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कहते हैं कि नागा साधु पूरी तरह निर्वस्त्र होकर गुफाओं व जंगलों में घोर तप करते हैं। यहीं होता है इनका रहस्यमय संसार इसलिए आम जनता को इनके दर्शन हो नहीं पाते, लेकिन इस अवस्था तक पहुचंने की प्रक्रिया बड़ी ही जटिल है जिनमें सालों लग जाते हैं। कहते हैं कि जब भी कोई व्यक्ति साधु बनना चाहता है तो उसे सबसे पहले किसी न किसी अखाड़े में जाना होता है जहां उसे साधु बनने के लिए विभिन्न कठिन प्रक्रियाओं से गुज़रना पड़ता है। अखाड़ा उस व्यक्ति के बारे में घर से लेकर उसके आसपास पूरी तहकीकात करता है कि वो साधु क्यों बनना चाहता है। अगर वो व्यक्ति उन्हें साधु बनने के लिए उपर्युक्त लगता है तो फिर उसे अखाड़े में प्रवेश की अनुमति मिलती है। इसके बाद उस व्यक्ति में ब्रहमचर्य का पालन, वैराग्य, ध्यान, सन्यास, धर्म, अनुशासन व निष्ठा की परख होती है जिसमें 6 से 12 साल तक का समय भी लग सकता है उसके बाद भी यदि गुरु उसे दीक्षा देने लायक समझेंगे तो उसे अगले पड़ाव में जाना नसीब होता है। अगली प्रक्रिया में श्रध्या, मुंडन और अपना खुद का पिंडदान तक करना पड़ता है फिर कहीं गुरु से दीक्षा प्राप्त करके सन्यासी बनते हैं। कहते हैं कि नागा साधुओं के अनेक विशिष्ट संस्कारों में एक ये भी है कि इनकी कामेन्द्रियां भंग कर दी जाती हैं। इस प्रकार से शारीरिक रूप से तो सभी नागा साधु विरक्त हो जाते हैं लेकिन उनकी मानसिक अवस्था उनके अपने तप बल निर्भर करती है।

आखिर क्यों करते हैं खुद का पिंड दान ?
कहते हैं कि दीक्षा के पहले जो सबसे महत्वपूर्ण कार्य है, वह है खुद का श्राद्ध और पिंडदान करना। यह प्रक्रिया इसलिए महत्वपूर्ण मानी जाती है क्योंकि ये माना जाता है कि साधक का धर्म केवल सनातन व वैदिक धर्म की रक्षा करना है उसके मन से मोह-माया को खत्म करना परम आवश्यक है इसलिए साधक स्वयं को अपने परिवार और समाज के लिए मृत मानकर अपने हाथों से अपना श्राद्ध कर्म करता है। इसके बाद ही उसे गुरु द्वारा नया नाम और नई पहचान दी जाती है। ये पिंडदान अखाड़े के पुरोहित करवाते हैं।