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Blog: वो भोली सी शरारतें आज भी एक नया सबक दे जाती हैं !

एक बचपन का वाक्या याद आया तो सोचा आपके साथ शेयर ही कर लू। बचपन में… चौथी या पांचवी क्लास की बात है, अक्सर ऐसा होता था कि शाम को पापा जब ऑफिस से घर आते थे उस वक्त मैं और मेरा भाई हम लोग घर के बाहर दोस्तों के साथ खेल रहे होते थे, दूर से जैसे ही पापा घर की तरफ नज़र आते उन्हें देखते ही छुपते-छुपाते हम दोनों बहन-भाई जो कोई भी खेल खेल रहे होते थे सब छोड़छाड़ कर घर की ओर भाग लेते, और सीधा अपने बैग से किताब निकाल कर पढ़ने बैठ जाते, खैर, एक बार तो ऐसा हुआ उस दिन भी मैं और मेरा भाई दूर से ही पापा को देखकर घर भाग आए और चुपचाप अपनी किताब निकाल कर ज़ोर ज़ोर से बोलकर लैसन याद करने बैठ गए..और…सांस हमारी फूल रही थी। इतने में पापा जैसे ही घर आए उनके चेहरे पर रोज़ की तरह उस दिन भी मुस्कान थी, लेकिन आज वो पास आकर भईया को बोले “बेटा किताब उल्टी है सीधी पकड़ो” हम दोनों के चेहरे एकदम सन्न…..मन में सोचा..मर गए…आज तो पकड़े गए…,असल में उस दिन पापा ने हमें खेलते और उनसे डर कर भागते देख लिया था, लेकिन उन्होंने कुछ नहीं कहा बस अपने कमरे की ओर चले गए। ऐसा नहीं था कि वो कभी खेलने से मना करते थे, लेकिन पढ़ाई की ओर ध्यान न लगाने से उन्हें दुख ज्यादा होता था। उन्होंने एक बार मज़ाक ही मज़ाक में हमें बता भी दिया था कि वो हमें रोज़ उनसे डर कर भागते देख लेते हैं। असल में उनकी आंख का डर, शर्म, रिस्पेक्ट ही इतनी थी कि उन्हें कुछ कहने की ज़रूरत ही नहीं पड़ती थी हम खुद ही समझ जाते थे कि पापा क्या कहना चाह रहे हैं, अगर हम सिर्फ खेलते ही रहेंगे और पढ़ेंगे नहीं तो उन्हें बुरा लगेगा।

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ये किस्सा आपसे शेयर मैने इसलिए किया है क्योंकि मेरे पड़ोस में एक परिवार है बेहद अच्छे लोग हैं। उनके दो बच्चे हैं, एक दसवीं में और दूसरा 12वीं में कॉन्वेंट स्कूल में पढ़ते हैं, लेकिन उनका अपने पिता व मां से व्यवहार अच्छा नहीं। कई बार अपने पिता से सबके बीच बुरे तरीके से बात करते सुना तो बहुत बुरा लगा। फिर याद आया काश इसे पता होता पिता जब ज़िंदगी में मां या पिता नहीं रहते तो दूसरा कोई समझाने वाला नहीं होता, आपका अच्छा या बुरा सोचने वाला कोई और नहीं होता। हमारा बचपन, करियर और रिश्ते कितने कीमती होते हैं न, वो जब हमारे पास नहीं होते तो हमें उसकी वेल्यू तब ही होती है। लेकिन मुझे लगता है जब भी जो भी हमारे पास बचा होता है उसे बचा लेना चाहिए नहीं तो… वे तो रेत की तरह हमारी मुट्ठी से फिसल ही रहे हैं। पेरेंट्स जैसी अनमोल चीज़ कोई दुनियां में है ही नहीं। याद कीजिए जब कभी हम अपने मां या पिता का कहा नहीं मानते थे। उनके लाख समझाने पर भी अपनी मर्ज़ी करते थे। उन्हें कितना तंग भी किया होगा, लेकिन रियलाइज़ नहीं कर पाये, आज आपके खुद के बच्चें हैं अब आपको कैसा लगता है जब वो आपको रिस्पेक्ट नहीं देते। एक बार सोचना ज़रूर कमी कहां हैं, हमारे संस्कारों में या हमारी परवरिश में ?

मनुस्मृति लखोत्रा

 

Image courtesy: Pixabay