धर्म एवं आस्था डैस्कः पौराणिक मान्यता के अनुसार वास्तु पुरुष की उत्पत्ति भगवान शंकर के पसीने से हुई। सम्पूर्ण वास्तु शास्त्र इन्ही पर केंद्रित है। वास्तु शास्त्र अनुसार वास्तु पुरुष भूमि पर अधोमुख होकर स्थित हैं। वास्तु पुरुष का सिर ईशान कोण अर्थात उत्तर-पूर्व दिशा की ओर, पैर नैर्ऋत्य कोण अर्थात दक्षिण-पश्चिम दिशा की ओर, भुजाएं पूर्व एवं उत्तर दिशा की ओर तथा टांगें दक्षिण एवं पश्चिम दिशाओं की ओर हैं। तात्पर्य यह है कि वास्तु पुरुष का प्रभुत्व समस्त दिशाओं में व्याप्त है।
मतस्य पुराण में वास्तु पुरूष के जन्म से सम्बंधित कथा का उल्लेख मिलता है। मत्स्य पुराण के अनुसार एक बार भगवान् शिव एवं दानवों में भयंकर युद्ध छिड़ा। ये युद्ध काफी लम्बे समय तक चलता रहा। दानवों से लड़ते-लड़ते भगवान् शिव जब बहुत थक गए तब उनके शरीर से तीव्र गति से पसीना बहना शुरू हो गया। शिव के पसीने की बूंदों से एक पुरुष का जन्म हुआ। वह देखने में ही बहुत क्रूर लग रहा था। शिव जी के पसीने से जन्मा यह पुरुष बहुत भूखा था इसलिए उसने शिव जी से आज्ञा लेकर उनके स्थान पर युद्ध लड़ा व सब दानवों को देखते ही देखते खा गया और जो बचे वो भयभीत हो भाग खड़े हुए। यह देख भगवान् शिव उस पर अत्यंत ही प्रसन्न हुए और उससे वरदान मांगने को कहा। समस्त दानवों को खाने के बाद भी शिव जी के पसीने से जन्मे पुरुष की भूख शांत नहीं हुई एवं वह बहुत भूखा था इसलिए उसने भगवान शिव से वरदान मांगा “हे प्रभु कृपा कर मुझे तीनो लोक खाने की अनुमति प्रदान करें”। यह सुनकर भोलेनाथ शिवजी ने “तथास्तु” कह उसे वरदान स्वरुप आज्ञा प्रदान कर दी।
फलस्वरूप उसने तीनो लोकों को अपने अधिकार में ले लिया, व सर्वप्रथम वह पृथ्वी लोक को खाने के लिए चला। यह देख ब्रह्माजी, शिवजी अन्य देवगण एवं राक्षस भी भयभीत हो गए। उसे पृथ्वी को खाने से रोकने के लिए सभी देवता व राक्षस अचानक से उस पर चढ़ बैठे। देवताओं एवं राक्षसों द्वारा अचानक दिए आघात से यह पुरुष अपने आप को संभाल नहीं पाया व पृथ्वी पर औंधे मुंह जा गिरा। धरती पर जब वह औंधे मुंह गिरा तब उसका मुख उत्तर-पूर्व दिशा की ओर एवं पैर दक्षिण-पश्चिम दिशा की ओर थे।
पैंतालीस देवगणो एवं राक्षसगणो में से बत्तीस इस पुरुष की पकड़ से बाहर थे एवं तेरह इस पुरुष की पकड़ में थे। इन सभी पैंतालीस देवगणो एवं राक्षसगणो को सम्मलित रूप से “वास्तु पुरुष मंडल” कहा जाता है जो निम्न प्रकार हैं –
- अग्नि 2. पर्जन्य 3. जयंत 4. कुलिशायुध 5. सूर्य 6. सत्य 7. वृष 8. आकश 9. वायु 10. पूष 11. वितथ 12. मृग 13. यम 14. गन्धर्व 15. ब्रिंगवज 16. इंद्र 17. पितृगण 18. दौवारिक 19. सुग्रीव 20. पुष्प दंत 21. वरुण 22. असुर 23. पशु 24. पाश 25. रोग 26. अहि 27. मोक्ष 28. भल्लाट 29. सोम 30. सर्प 31. अदिति 32. दिति 33. अप 34. सावित्र 35. जय 36. रुद्र 37. अर्यमा 38. सविता 39. विवस्वान् 40. बिबुधाधिप 41. मित्र 42. राजपक्ष्मा 43. पृथ्वी धर 44. आपवत्स 45. ब्रह्मा।
इन पैंतालीस देवगणो एवं राक्षसगणो ने शिव भक्त के विभिन्न अंगों पर बल दिया एवं निम्नवत स्थिति अनुसार उस पर बैठे :
अग्नि- सिर पर; अप- चेहरे पर; पृथ्वी धर और अर्यमा- छाती, आपवत्स-हृदय, दिति और इंद्र- कंधे, सूर्य और सोम-हाथ, रुद्रा और राजपक्ष्मा- बायां हाथ, सावित्र और सविता -दाहिने हाथ, विवस्वान् और मित्र- पेट, पूष और अर्यमा- कलाई, असुर और शीश-बायीं ओर वितथ-दायीं और यम व वायु-जांघों, गन्धर्व और पर्जन्य-घुटनों पर, सुग्रीव और वृष-शंक, दौवारिक और मृग- घुटने, जय और सत्य- पैरों पर उगने वाले बालों पर, ब्रह्मा- हृदय पर विराजमान हुए।
इस तरह से बाध्य होने पर, वह पुरुष औंधे मुंह नीचे ही दबा रहा। उसने उठने का भरपूर प्रयास किया लेकिन वह असफल रहा। अत्यंत भूखा होने के कारण वह अंत में जोर जोर से चिल्लाने व रोने लगा व छोड़ने के लिए करुण निवेदन करने लगा। उसने कहा की आप लोग कब तक मुझे इस प्रकार से बंधन में रखेंगे ? मैं कब तक इस प्रकार सिर नीचे किए पड़ा रहूंगा ? मैं क्या खाऊंगा ? किन्तु देवता एवं राक्षस गणो द्वारा उसे बंधन मुक्त नहीं किया गया। अंततः इस पुरुष ने ब्रह्मा जी को पुकारा और उनसे खाने को कुछ देने के लिए जोर जोर से करुण रुद्रन करने लगा, तब ब्रह्माजी ने उनकी करुण पुकार सुनकर उससे कहा कि मेरी बात सुनो –
“आज भद्रप्रदा शुक्ल का त्रित्य शनिवार एवं विशाखा नक्षत्र है; इसलिए, तुम जमीन पर यूं ही अधोमुख होकर पड़े रहोगे किन्तु तीन माह में एक बार अपनी स्थिति यूं ही लेटे- लेटे बदल सकोगे, अर्थात् ‘भाद्रपद’ से ‘कार्तिक’ तक तुम अपना सिर पूर्व एवं पैर पश्चिम दिशा की ओर किये लेटे रहोगे। ‘मार्गशिरा’, ‘पुष्यम’ एवं ‘माघ’ माह में तुम दक्षिण दिशा की ओर लेटे रहोगे इस स्थिति में तुम्हारा सिर पश्चिम दिशा एवं पैर उत्तर दिशा की ओर रहेंगे। ‘फाल्गुन’, ‘चैत्र’ एवं ‘बैसाख’ के माह के समय तुम्हारा शरीर उत्तर दिशा की ओर रहेगा इस स्थिति में तुम्हारा सिर पश्चिम दिशा की ओर एवं पैर पूर्व दिशा की ओर रहेंगे। “ज्येष्ठ”, “आशाण” एवं “श्रावण” के माह के समय तुम्हारा शरीर पूर्व दिशा की ओर रहेगा इस स्थिति में तुम्हारा सिर उत्तर दिशा की ओर एवं पैर पश्चिम दिशा की ओर रहेंगे। तुम चाहे जिस दिशा में लेटे हुए घूमो, किन्तु तुम्हे बायीं करवट से ही लेटे रहना होगा”।
इस प्रकार देव व राक्षस गणो द्वारा औंधे मुंह दबाये एवं घेरे जाने पर ब्रह्माजी ने शिव भक्त को वास्तु के देव अर्थात “वास्तुपुरुष” नाम दिया। ब्रह्माजी ने अपना आशीर्वाद देते हुए वास्तुपुरुष से कहा कि संसार भर में जो भी व्यक्ति, भवन, मंदिर, कुआ आदि की नींव रखेगा अथवा निर्माण उस दिशा में करवाएगा जिस दिशा में उस समय तुम देख रहे हो एवं जिस दिशा में तुम्हारे पैर एवं सिर हैं, को तुम परेशान एवं सता कर रख सकते हो।
तुम्हारी पीठ एवं सिर जिस भी दिशा में हो, तुम्हारा पूजन एवं भोग लगाए बिना यदि कोई व्यक्ति भवन अथवा मंदिर आदि की नीव भी रखेगा तो, ऐसे व्यक्ति को तुम दण्डित एवं नष्ट भी कर सकोगे।
ब्रह्माजी के मुख से ऐसा सुनकर वास्तुपुरुष संतुष्ट हुए। इसके बाद से ही वास्तु-पुरुष का पूजन-भोग अनिवार्य रूप से प्रचलन में आया।
विभिन्न उपलक्षों पर वास्तुपुरुष के पूजन का अनिवार्य रूप से विधान है। भगवान ब्रह्मा जी के वरदान स्वरूप जो भी मनुष्य भवन, नगर, उपवन आदि के निर्माण से पूर्व वास्तुपुरुष का पूजन करेगा वह उत्तम स्वास्थ्य एवं समृद्धि संपन्न रहेगा। यूं तो वास्तु पुरुष के पूजन के अवसरों की एक लंबी सूची है लेकिन मुख्य रूप से वास्तु पुरुष की पूजा भवन निर्माण में नींव खोदने के समय, गृह का मुख्य द्वार लगाते समय, गृह प्रवेश के समय, पुत्र जन्म के समय, यज्ञोपवीत संस्कार के समय एवं विवाह के समय अवश्य करनी चाहिए।