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Happiness is Free: अब मां के हाथ का खाना याद नहीं आता क्या ?

अभिभावकों की ज़िंदगी में एक समय के बाद ऐसा मोड़ आता है जब कोई उन्हें ये कहने वाला नहीं होता कि “मां आज मेरी फेवरेट सब्ज़ी बनाओं न तुम्हारे हाथों की बनी सब्ज़ी मुझे बेहद पसंद हैं”। मां के हाथ के परांठे, साग, खीर, हलवा-पूरी, लड्डू…अहा !……ज़रा सोचिए अपने बच्चों के करियर के ख्वाब बुनते-बुनते कब मां बाप अकेले हो जाते हैं ये उन्हें भी नहीं पता चलता कि ज़िंदगी कहां गई?… अभी तो घर में बच्चों के शोर मचाने, भागने-दौड़ने, हंसने-गाने की आवाज़ें आया करती थी, आप क्रिकेट टेस्ट मैच देखने के लिए टीवी के सामने कुछ इस कदर डटे होते थे जैसे आप खुद ही क्रिकेट के मैदान पर उतर आये हों और बैठे-बैठे मां से डिमांड पे डिमांड किया करते थे कि मां भूख लगी है कुछ खिलाओ न? कभी स्नैक्स, तो कभी कोलड्रिंक, तो कभी चाय पकौड़े…और मां भी अपने बच्चों के लिए पूरे चाव से कभी कुछ बनाती तो कभी कुछ शायद यही सोचकर कि इसी बहाने कि आज आप घर पर तो हैं। पिता भी आपकी एक छोटी सी डिमांड पर हमेशा आपको सरप्राईज़ देने की कोशिश करते कि चलो कोई नहीं, जो मैं नहीं ले पाया मेरे बच्चे अपना शोंक पूरा करने से न रह जाएं।

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याद कीजिए जब आप स्कूल में थे हर साल आपके पास होने की “खुशखबरी” की खबर आसपास गली मौहल्ले में मां-बाप की चर्चा का विषय होती थी कि हमारा बच्चा अच्छे अंक लेकर पास हुआ है। ये खुशखबरी की खबर कैसे पहली क्लास से दसवीं, बाहरवी, फिर ग्रेजुएट, फिर मास्टर्ज़ तक कई पड़ावों को पार करती है फिर एक दिन एक ओर खुशखबरी आती है कि आपको नौकरी मिल गई, या आपका वीजा लग गया, या एडमिशन मिल गया, अब आप विदेश जायेंगे या कहीं कोचिंग लेने जा रहे हैं। तब इस खुशखबरी से मां-बाप की खुशी का ठिकाना ही नहीं रहता। यानि आप अपने करियर में अगर सैटल हो गए तो जैसे मां-पाप का जीवन सफल हो गया यहीं से अगली यात्रा अब आपकी अपनी शुरु होती है क्योंकि अब आप इंडीपैंडेंट होकर सोचने लग जाते हैं।

इस खुशखबरी का असर मां-बाप पर कुछ दिनों तक तो रहता है आसपास, रिश्तेदारों से बधाईयां मिलती हैं तो फक्र भी महसूस होता हैं, लेकिन कुछ दिनों तक बच्चों का दिन में कई बार फोन आता है पर काम, बढ़ती जिम्मेदियां, वर्क लोड या फिर कोचिंग, तैयारी और इंटरनेट के चलते ये फोन फिर कई दिन बाद आने लगता है और उधर मां-बाप का सूना घर उन्हें काटने को दौड़ने लगता है। उनकी जिंदगी में अकेलापन बढ़ता जाता है और बिमारियां इसी मौके का फायदा उठाती हैं और उनके शरीर को जकड़ लेती हैं, लेकिन क्या करें यही जीवन है। ज़िंदगी ऐसे ही गुज़रती है। कभी ये समय उनके भी अभिभावकों ने ऐसे ही बिताया होगा। पहले आस-पड़ोस में उठना-बैठना, संयुक्त परिवारों में समय गुज़र जाता था।

लेकिन आज फ्लैट्स ने आंगन खत्म कर दिए हैं। आज बड़े शहरों में तो फ्लैट, सोसाइटीज़ इतनी बढ़ गई कि मोहल्ला संस्कृति हीं खत्म हो चुकी है, आज एक परिवार को ये नहीं पता होता कि बगल वाले फ्लैट में कौन रह रहा है। तब घर की औरतें आंगन में बैठ कर सिलाई-बुनाई जैसे काम भी करती और गप्पें लड़ाती और आदमी लोग भी मिल-जुलकर अखबार पढ़ते और किसी न किसी गरम मुद्दे पर चर्चा करते तो बुढ़ापें और रिटायरमेंट के बाद समय काटना आसान होता था, लेकिन आज मेल-जोल की कमी हमें अकेला कर रही है, बीमार और स्वार्थी बना रही है।

ऐसे में अभिभावकों को चाहिए कि अपना मेल-जोल हमेशा बनाए रखें। घूमने जाएं, देश में बहुत कुछ है देखने लायक आप जिन जगहों को पूरी ज़िंदगी देख नहीं पाए तो अब आपके पास समय हैं। रिशतेदारों के पास और अपने गांव में आना-जाना बनाए रखें। कोई न कोई क्रीएटिव काम करना शुरु करें। गार्डनिंग का शोंक हैं तो करें। नएं-नएं पौधें लगाएं उनके साथ वक्त बिताएं,

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सुबह-शाम सैर करने की आदत डालें। कुकिंग का शोंक हैं तो कुछ न कुछ बनाएं और अपने घर में मेहमानों को इन्वाइट करें।

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आप खुद अपने अभिभावकों को ऐसी सलाह ज़रूर दें ताकि वो सारा समय आपको याद करते-करते अपने आपको बीमार न करें। ज़िंदगी जब तक है तब तक रोशनी है, जीने की नईं चाह है, ऐसे में आपको चाहिए कि उनके लिए भी समय निकालें। उन्हें कहीं घूमाने ले जाएं। अगर आप शादीशुदा हैं तो अपने बच्चों को उनके साथ समय बिताने की आदत डालें ताकि जब आप बूढ़ें हों तो वो भी आपको अकेला न होने दें, देखिए संस्कार तो बच्चों में घड़ने पड़ते हैं और प्रेक्टिकली करके भी दिखाना होता है कि मां-बाप का सम्मान व उनकी सेवा कितनी ज़रूरी है।

पेरेंट्स के लिए कोई उनका मनपसंद गिफ्ट लेकर जाएं। वो कभी आपसे मांगेगे नहीं ये आपको देखना है कि बचपन में बिन मांगे वो भी आपकी हर ज़रूरत का ध्यान रखते थे तो आज आप क्यों नहीं ?

 

मनुस्मृति लखोत्रा