You are currently viewing BLOG: नासा, बरहम बाबा एवं परग्रही की ख़ोज !

BLOG: नासा, बरहम बाबा एवं परग्रही की ख़ोज !

अन्य ग्रहों पर प्राणी खोजने के लिए नासा ( NASA) कई दशकों से अरबों -खरबों डालर खर्च कर चुकी है पर किसी ग्रह पर कोई गँवार व्यक्ति भी नज़र नहीं आया, सिविल सोसायटी के प्राणी की तो बात ही छोड़ दें. इधर मेरे घर के पास ही एक प्राचीन पीपल के पेड़ पर बरहम बाबा सैकड़ों वर्षों से बैठे हुए हैं और किसी भी अन्तरिक्ष यान की नज़र उन पर नहीं पड़ी है. यह मेरे जीवन के कई अनसुलझे रहस्यों में से एक है.

Yashendra
लेखक- राय यशेन्द्र प्रसाद
संस्थापक, आर्यकृष्टि वैदिक साधना विहार
वैदिक संस्कृति के अन्वेषक, लेखक, फिल्मकार
भू.पू. सीनियर प्रोड्यूसर एवं निर्देशक, ज़ी नेटवर्क
भू.पू. व्याख्याता ( भूगोल एवं पर्यावरण), मुम्बई.

मुझे आज तक यह समझ नहीं आया कि नासा दूसरे ग्रहों पर आक्सीजन, जल अथवा पृथ्वी जैसा जीवन खोजने के लिए क्यों परेशान है. जीवन के लिए पृथ्वी पर जो आवश्यक है कोई ज़रूरी नहीं कि अन्य ग्रहों पर जीवन के लिए वही ज़रूरी हो ! इतनी छोटी-सी बात नासा की समझ में नहीं आई है. मुझसे ही पूछ लिया होता.

बरहम बाबा तो पीपल पर न जाने कितने बरसों से बैठे हुए हैं, बिना खाए, बिना पिए. वैसे लोग परसादी चढाते हैं,जल ढालते हैं और धागा भी बाँधते हैं. पर परसादी में से इलायचीदाना या बताशा खाते हुए भी बरहम बाबा को किसी ने नहीं देखा, जबकि बाबा को मधुमेह नहीं है यह भी सब जानते हैं. अब यह मत कहिये कि बरहम बाबा एक वहम हैं और कुछ नहीं  ! जिसने भी अपने जीवन में उनकी कृपा प्राप्त की है वही जानता है कि वे सच में हैं ! किसी और पेड़ पर नहीं, बल्कि उसी पीपल के पेड़ पर ( देखिये संलग्न चित्र). 

downloadबंजारी
बंजारी के बरहम बाबा, गोपालगंज 

मामला सिर्फ बरहम बाबा का ही नहीं है. अपने पड़ोस मे एक जिन्न के बारे में भी सुना था जो एक परिवार पर कुछ ज्यादा ही मेहरबान था. एक  ठोंगा जलेबी रख़ आता था उनके यहाँ सुबह-सुबह. एकदम गर्मा-गर्म जलेबी ! अब ऐसा है कि मुझे जलेबियाँ बेहद पसन्द हैं. इसीलिये मेरा मानना है कि यह कहानी सच्ची है.

बरहम बाबा और जिन्न के अलावा भी कई अनोखे प्रकार के पृथ्वी-वासियों के बारे में सुना है, पढ़ा है. ना, मैं सांसदों और विधान-सभा सदस्यों के बारे में नहीं कह रहा.  मैं उनसे कम ही भयानक जीव जैसे वेताल, ब्रह्मराक्षस, पिशाच, अतृप्त आत्मा आदि की ओर इशारा कर रहा हूँ. डिस्कवरी चैनेल पर एक साप्ताहिक कार्यक्रम आता है जिसमें इनकी वीडियो-रेकार्डिंग तक दिखाई जाती है. उनके अस्तित्व के गवाह के रूप डाक्टर एवं आला अधिकारी भी साथ मौजूद रहते हैं. यह कार्यक्रम सच में देखने लायक है. वैज्ञानिक तक इन को नकार नहीं पाते. हाँ, वैज्ञानिकों का कहना होता है कि उनके विज्ञान – सिद्धान्त के अनुसार यह सम्भव नहीं इस लिए ये सब वहम हैं.  आधुनिक विज्ञान में यह  मान्यता है कि जो उनके सिद्धान्त के अनुसार नहीं, वह सम्भव ही नहीं. भले ही वह सामने डिस्को- डांस ही क्यों न कर रहा हो !

कई वर्षों पहले दिल्ली में एक विदेशी महिला आई थी जो पशुओं से बात करती थी. सड़क पर घूमती एक गाय ने उन्हें अपना दुखड़ा सुनाया था. सड़क के कुत्ते तो पीछे ही पड़ गए थे कि मेरा सुनो, मेरा सुनो ! सुना है नालंदा विश्वविद्यालय में पशु-पक्षियों की भाषा भी पढाई जाती थी. लगभग पंद्रह-बीस बरस पहले अल्फ्रेड नोबल के वंशधर क्लेयर नोबल महाराष्ट्र के आलन्दी ग्राम  आए थे जहाँ सन ज्ञानेश्वर की समाधि है. समाधि के प्रांगण में एक पीपल के पेड़ ने उनसे बातचीत की और उन्हें उनके पूर्वजन्म के बारे में बताया. साथ ही वहाँ एक विश्वविद्यालय खोलने का सुझाव भी दिया था. यह मैंने ‘टाईम्स  ऑफ इण्डिया के’ सम्पादकीय में पढ़ा था. बाद में अपने इतालवी मित्र तागलियासाकी  के साथ मैं स्वयं भी वहाँ गया  पर मुझसे तो किसी झाड़- वृक्ष ने कुछ बात भी नहीं की. कहाँ नोबल परिवार का सदस्य और कहाँ मेरे जैसा ठन-ठन गोपाल !

कितनी विचित्र दुनिया है हमारी ! अन्य ग्रहों की बात छोड़िये, अपने ग्रह के जीवों या संभावित जीवों के बारे मे भी हमें पूरी जानकारी नहीं है.  इस पृथ्वी पर ही भू-मध्यसागर के तल में ‘स्पाईनोलौरिकस सिंजिया’  ( देखिये संलग्न चित्र ) नामक एक जीव लौरीसिफेरानस नामक प्रजाति के उन तीन जीवों में से एक है जिन्हें आक्सीजन की जरूरत ही नहीं ! यह जीव बिना आक्सीजन के जीते हैं, अण्डे देते हैं और मजा-मस्ती करते हैं ! हमारे महान वैज्ञानिक यह देख कर हैरत में हैं और आशा है अब उन्हें यह समझ आ जाए कि ब्रह्माण्ड में अथवा विभिन्न आयामों में जीवन के लिए आक्सीजन या जल हर जगह अपरिहार्य नहीं होता.

spin
स्पाईनोलौरिकस सिंजिया : इस जीव को आक्सीजन की जरूरत नहीं 

एक डा. पद्माकर विष्णु वर्त्तक हैं पुणे में जिनपर मैंने एक लघु वृत्तचित्र भी बनायी थी. यह महाशय तो ध्यान के द्वारा सीधे मंगल ग्रह पर ही पहुँच  गए ! यह अलग बात है कुछ ही देर में डर के मारे वापस आ गए. डर क्यों ? हुआ यों कि वहाँ पहुँच कर डा. वर्त्तक इधर-उधर नज़र दौडाने लगे यह जानने के लिए आखिर वहाँ है क्या. इसी क्रम मे जब उनकी नज़र नीचे पड़ी तो देखा कि उनके पैर तो दिख ही नहीं रहे ! गौर किया तो पाया कि उनका शरीर भी नहीं है ! इतनी घबराहट हुई कि अगले ही क्षण अपने को वापस घर में पाया ! अब उनका भौतिक शरीर तो वहाँ गया नहीं था.  वैसे डा. वर्त्तक ने समझदारी का काम यह किया कि मंगल ग्रह पर उन्हें जो भी दिखा उसे उन्होंने एक पत्रिका में प्रकाशित करवा दिया. जब नासा ने मंगल पर वायकिंग- प्रथम भेजा तो उसके द्वारा प्रेषित जानकारियाँ डा. वर्त्तक के पहले-से प्रकाशित तथ्यों से हू-ब-हू मिलती थीं.

जब नासा ने वायकिंग-द्वितीय भेजने की घोषणा कि तो मित्रों के उकसाने पर डा. वर्त्तक एक बार फिर जा पहुँचे मंगल पर. इस बार काफ़ी कुछ देखा.  इसमें एक बात बिलकुल चौंका देने वाली थी. उन्होंने मंगल के आकाश में एक पिण्ड को को दूसरे पिण्ड की ओर जाते देखा. पर दूसरे पिण्ड के के करीब पहुँच कर पहला पिण्ड वापस लौट गया ! विज्ञान के नियमों के अनुसार किसी आकाशीय पिण्ड का इस प्रकार का व्यवहार असंभव है. मित्रों ने समझाया कि यह बात मत प्रकाशित करवाओ क्योंकि आपकी बड़ी फ़जीहत होगी. पर डा. वर्त्तक ने जो देखा था वह सब पत्रिका में प्रकाशित करवा ही दिया. कुछ ही दिनों बाद वायकिंग- द्वितीय मंगल के आकाश में पहुँचा. वायकिंग- प्रथम को उससे जुड़ जाना था. तय  कार्यक्रम के अनुसार वायकिंग- प्रथम उसकी ओर बढ़ा पर कुछ समस्याओं के कारण जुड़ना सम्भव  न हो सका और वायकिंग- प्रथम वापस लौट गया. जब डा. वर्त्तक ने नासा की यह घोषणा सुनी तो वे हैरत में पड़ गए. क्या उन्होंने भविष्य में यात्रा कर ली थी ?!!

मुंबई के एशियाटिक सोसायटी पुस्तकालय में मुझे घण्टों समय बिताने की आदत है. बड़ी-बड़ी खिड़कियों से आती समुद्र की झिर-झिर हवा में आराम-कुर्सी पर पैर फैलाकर पुस्तक में खो जाने का अपना एक अलग आनन्द है. पुरानी पुस्तकों की गन्ध न जाने क्यों मेरे मस्तिष्क की कोशिकाओं को फड़फड़ा कर एकदम जागृत कर देती है. यहाँ मैंने कई ऐसी पुस्तकें पढ़ी हैं जिन्हें सौ साल से किसी ने हाथ तक नहीं लगाया. एक बार मेरे हाथ लगी एक ऐसी ही एक पुस्तक जिसका प्रकाशन 1900 ई. में फ्रांस मे हुआ था.  ‘फ्रॉम इण्डिया टू प्लैनेट मार्स’ ( ‘भारत से मंगल ग्रह तक’ ) नामक इस पुस्तक के लेखक हैं थियोडोर फ्लोर्नोय. इसमें हेलेन नाम की एक फ्रांसीसी महिला की सत्य कथा है जिसे अपने कई पूर्व-जन्म याद थे. इनमे से एक जन्म भारत में हुआ था और इस जन्म की  याद आते समय वह धाराप्रवाह संस्कृत बोलती थी. शायद उस जन्म में संस्कृत ही  उसकी मातृभाषा रही होगी.  रोचक बात यह है हेलेन का एक जन्म मंगल ग्रह पर भी हुआ था ! मंगल की सभ्यता एवं वहा की भाषा एवं लिपि  ( देखिये संलग्न चित्र) के बारे में कई रहस्यमय जानकारियाँ भी दी है.

mars1
हेलेन द्वारा दी गई  मंगल ग्रह के निवासियों की लिपि 

यह सब देखकर मैं सोच में पड़ जाता हूँ कि ब्रह्माण्ड मे हर जीवन के लिए हर जगह हम पृथ्वी जैसे वातावरण की ही ख़ोज क्यों करते हैं ? हो सकता है  आक्सीजन अथवा जल में अन्य ग्रहों के जीवों का दम ही घुट जाए ! क्या हम चन्द्रमा के बारे मे भी पूरी तरह जानते हैं ? एक पुरानी पुस्तक में मैंने पढ़ा कि चन्द्रमा पर भी जीवन है एवं वहाँ के जीवों के शरीर पर लम्बे-लम्बे रोम हैं. उस पुस्तक में यह भी लिखा था कि चन्द्रमा का  एक भाग ही पृथ्वी के सामने रहता है और दूसरा भाग पृथ्वी के सामने कभी नहीं आता. सामने आने वाला भाग दूसरे की अपेक्षाकृत गर्म है. इन्ही दो भागों के मध्य क्षेत्र में  वे जीव रहते हैं. वे उछल-उछल कर चलते हैं और चौड़े मार्ग भी हैं. यह सब पढ़ कर मेरा माथा ठनका. इस पुस्तक के प्रकाशित होने के बाद तो चन्द्रमा पर मनुष्य जा चुका है ! अभी तक तो ऐसी कोई सूचना नहीं है. जब इसपर मैंने ख़ोज करने की कोशिश की तो इतनी सारी बातें सामने आयीं कि पता ही नहीं चलता क्या सच है और क्या गलत. इसलिए इस ख़ोज पर मैंने स्थगन-प्रस्ताव पारित कर रखा है.

वैसे जब मैंने सुना कि भारत अपना चन्द्रयान -प्रथम भेजने वाला है तो अपने एक वैज्ञानिक मित्र को सुझाया कि वे अपने संपर्क सूत्रों का इस्तेमाल कर के इसरो ( ISRO ) के वैज्ञानिकों को यह यान चन्द्रमा के उपरोक्त क्षेत्र में ही भेजने के लिए प्रेरित करें. पर ‘एलियन्स’ ( परग्रही) को ढूँढ निकालने का मेरा प्रयास धरा का धरा  रह गया ! अब आप पाठकों से अनुरोध है कि इस कार्य में सहयोग करें.  यदि कोई मिल जाता है तो मेरे लिए कम से कम एक ठोंगा जलेबी जरूर भिजवा दीजियेगा.

नासा तो अब भी अंतरिक्ष यान भेजकर पानी और आक्सीजन की तलाश में लाखों डॉलर पानी में बहा रही है.  हम जैसे ठन-ठन गोपाल बरहम बाबा तक ही रिक्शा से जा सकते हैं. प्रत्येक वैशाख शुक्ल पक्ष के प्रथम सोमवार को उस पीपल के पेड़ के पास मेला लगता है. गोपालगंज का बंजारी मेला ! चलिए, एक बार फिर घूम आते हैं. क्या पता, ‘एलियन’ (परग्रही) न सही, कोई अनोखा पृथ्वीग्रही ही मिल जाए.

……… 

लेखक के.ई.एस.कांदिवली, मुम्बईके भू.पूर्व लेक्चरर और जी टीवी के भू पूर्व निर्देशक हैं. ज़ी  मीडिया कॉर्पोरेशन  के  टीवी  चैनल  ‘ज़ी  पुरवईया ‘ ( बिहार -झारखण्ड )के क्रिएटिव हेड  भी रह चुके हैं.  इंडो -अमेरिकन चैम्बर ऑफ़ कॉमर्स ( बिहार -झारखण्ड) के वाइस -चेयरमैन भी हैं।