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BLOG: भगवान् परशुराम और एक भ्रान्ति !

दुर्भाग्यवश भारतवर्ष  कि तात्कालिक राजनैतिक परिस्थिति ने भगवान् परशुराम को सिर्फ एक वर्ग  विशेष का प्रतिनिधि मान लिया हैं, और समाज के अन्दर एक भ्रान्ति बन गयी हैं  कि परशुरामजी किसी वर्ग विशेष के विरोधी थे । जबकि सत्य यह हैं भगवान्  परशुराम ने वर्ग विशेष का भेदभाव न रखकर अत्याचारियो, आतंकवादियों और भ्रष्टाचारियो के विरुद्ध अस्त्र-शस्त्र उठाने की  प्रेरणा दी | मूलपुरुष श्री परशुराम जी का स्मरण करते हुए सम्पूर्ण हिन्दू समाज को एकजुट होकर अत्याचार, अन्याय, भ्रष्टाचार, जातिवाद और आतंक से लोहा लेने के लिए  कृतसड़्कल्प होना होगा ।

लेखक – पीयूष चतुर्वेदी
प्रयागराज ( उत्तर प्रदेश )

भगवान् परशुराम पे हिन्दू समाज के कुछ  विघटनकारी तत्व ये आरोप लगाते हैं कि वो क्षत्रियों के शत्रु थे , इसलिए वो  सिर्फ ब्राह्मणों को शिक्षा देते थे ! सम्पूर्ण पौराणिक इतिहास पर नजर डाले तो यह ज्ञात होता हैं भगवान् परशुराम ने सिर्फ तीन लोगों को अस्त्र-शस्त्र कि शिक्षा दी , भीष्म, द्रोण और कर्ण | सिर्फ तीन , क्योंकि उनके पास सदैव ही शिक्षण कार्य के लिए समय का आभाव रहा | इसलिए उन्होंने अपने जीवन काल में सिर्फ तीन शिष्य ही बनाए, और उन तीनों की धनुर्विद्या का कायल सम्पूर्ण आर्यावर्त था |  इन तीनो को शिक्षा देने के पीछे का महत्वपूर्ण कारण “याचना” थी | जैसा कि हम सब जानते हैं कि भगवान परशुराम ने भीष्म पितामह को भी शिक्षा दी , अब  भीष्म तो क्षत्रिय थे , फिर यह कहना कि वो सिर्फ ब्राह्मणों को शिक्षा देते थे, स्वयं ही निराधार सिद्ध हो जाता हैं | समयाभाव के पश्चात भी माँ गंगा की याचना को भगवान् परशुराम ठुकरा नहीं पाए थे और भीष्म पितामह को शिक्षा दिया | उसी परशुराम जी ने जब सुना कि एक क्षत्रिय कन्या अम्बा (काशिराज की पुत्री) के साथ भीष्म ने अन्याय किया हैं तो उन्होंने उस क्षत्रिय कन्या को न्याय दिलाने के लिए भीष्म से युद्ध भी किया |

ठीक वैसे ही , जब भगवान् अपनी समस्त सम्पत्ति को ब्राह्मणों में दान कर के महेन्द्राचल पर्वत पर तप कर रहे थे तब एक बार द्रोण उनके पास पहुँचे और उनसे दान देने का अनुरोध किया। इस पर परशुराम बोले, “वत्स! तुम विलम्ब से आये हो,  मैंने तो अपना सब कुछ पहले से ही ब्राह्मणों को दान में दे डाला है। अब मेरे पास केवल अस्त्र-शस्त्र ही शेष बचे हैं, तुम चाहो तो उन्हें दान में ले सकते हो।” द्रोण यही तो चाहते थे अतः उन्होंने कहा, “हे गुरुदेव! आपके अस्त्र-शस्त्र प्राप्त कर के मुझे अत्यधिक प्रसन्नता होगी, किन्तु आप को  मुझे इन अस्त्र-शस्त्रों की शिक्षा-दीक्षा भी देनी होगी तथा विधि-विधान भी बताना होगा।” इस प्रकार परशुराम के शिष्य बन कर द्रोण अस्त्र-शस्त्रादि सहित समस्त विद्याओं के अभूतपूर्व ज्ञाता हो गये।

रही बात, कर्ण को शाप देने की तो उसने भी ऐसी ही उड़ती-उड़ती खबर सुन ली थी की वो सिर्फ ब्राह्मणों को शिक्षा देते हैं ( अगर सिर्फ ब्राह्मणों को ही शिक्षा देने कि बात सत्य होती तो क्या सिर्फ उनका एक ही ब्राहमण शिष्य “द्रोण” हुआ होता ? ) उनके पास गया और उनसे झूठ बोला की वो ब्राह्मण हैं और वो उनसे काफी प्रभावित रहता हैं | वो चाहता हैं कि उनसे शिक्षा लेकर वो भी  दुष्ट क्षत्रिय राजाओं का संहार कर सके | उसके ऐसे उत्तम उद्देश्य को देखकर  (क्योकि उस समय भी भ्रष्टाचार में लिप्त कुशासन के खिलाफ जल्दी कोई खड़ा होना नहीं चाहता था ) परशुराम ने उसे शिक्षा देनी स्वीकार कर ली लेकिन जब उन्हें ये पता चला की कर्ण ने उनसे झूठ बोलकर शिक्षा ग्रहण की है, भगवान् परशुराम से छल करके शिक्षा ग्रहण किया तो  उन्होंने कर्ण से कहाकि “ हे कर्ण ! तुम्हे यह स्मरण क्यों नहीं रहा कि असत्य आत्मा की निर्बलता का दूसरा नाम हैं और जगत की कोई भी विद्या निर्बलता को फल नहीं देती हैं | जिस प्रकार कुछ वृक्ष के पत्ते सूर्य के ताप में लहलहाते रहते हैं किन्तु जाड़े में झड़ जाते हैं | हे वत्स ! उसी तरह निर्बल मनुष्य की विद्या भी ठीक परीक्षा के समय नष्ट हो जाती हैं, यही वास्तविकता हैं और यही जीवन का सत्य हैं “ | कर्ण को भी अपने भूल का अहसास हुआ कि भगवान् मनुष्य-मनुष्य में भेद नहीं करते, भगवान् की नजर में सभी मनुष्य समान हैं, लेकिन कर्ण ने भगवान् परशुराम को सामान्य मनुष्य समझने की भूल कर बैठा था और उनसे असत्य का सहारा लेकर शिक्षा ग्रहण करने का अपराध किया था | कर्ण उनके भगवद स्वरुप को समझकर गया होता और उनसे अपने वर्ण  न जानने की बात बताता या सूतपुत्र होने की बात बताता और उनसे शिक्षा देने की याचना की होती तो वो उसे अवश्य ही शिक्षा दिए होते या फिर किसी योग्य गुरु के पास उसे शिक्षा ग्रहण करने के लिए भेजा होता लेकिन कर्ण ने उनसे असत्य बोला और उसका परिणाम भी उसे मिला | इतना सब होने के वावजूद कर्ण के मन में कभी भी अपने गुरु के लिए असम्मान की भावना नहीं आयी क्योंकि कर्ण सत्य जानता था कि वो जो कुछ भी हैं उसका श्रेय भगवान् परशुराम को ही जाता हैं, लेकिन समाज में बैठे विघटनकारी तत्वों ने भगवान् परशुराम के मुख से निकले सत्य वचन को कर्ण के लिए “शाप” कहकर दुष्प्रचारित किया |

समाज के कुछ विघटनकारी तत्व कहते हैं कि परशुराम जी सभी क्षत्रियों के शत्रु थे | जबकि सत्य यह हैं कि परशुराम सभी क्षत्रियों के शत्रु नहीं थे , उनकी माँ रेणुका राजा प्रसेनजीत की पुत्री थीं , परशुराम जी की दादी सत्यवती महर्षि विश्वामित्र की बहन थी , यह दुनिया जानती है की महर्षि विश्वामित्र जन्म से क्षत्रिय थे , इस लिहाज़ से उनकी बहन भी क्षत्रिय हुईं | परशुराम जी के पिता महर्षि जमदग्नि  भी क्षत्रिय स्त्री की कोख से जन्मे.| लोगो में ये भ्रान्ति बन गयी कि वो समस्त क्षत्रियो के शत्रु थे, जब की उन्होने सिर्फ हैहेय वंशी (इसी वंश के राजा सहस्त्रार्जुन ने इनके पिता जमदग्नि की हत्या की थी) और दुराचारी राजाओं को परास्त किया | अगर ऐसा नहीं होता तो रघुवंश कैसे होता उस समय ? राजा जनक कैसे होते? कैकय राज कैसे होते? धनुषयज्ञ के समय जनक के दरबार में इतने सारे क्षत्रिय राजा कैसे सम्मलित हुए होते? इसलिए यह  असत्य हैं कि परशुराम समस्त क्षत्रियों के शत्रु थे |

ध्यान देने की बात यह है कि परशुरामजी के पिता का वध एक पापी राजा ने किया था, इधर भगवान् विष्णु ने भी उन्हे दुष्ट राजाओँ के वध की ही आज्ञा दी थी – “जहि दुष्टान् नृपोत्तमान् ” – पद्मपुराण उत्तरखण्ड , 241वाँ अध्याय, श्लोक 41 | अतः उन्होने मात्र दुष्ट राजाओँ का ही संहार किया, सामान्य क्षत्रियो का नही । अतः उन्होने सिर्फ पापी राजवंश का नाश किया। सहस्रार्जुन जैसे हजारो राजा उनके  हाथ से दण्ड पाकर पाप मुक्त हुए। रावण का अत्याचार बढ़ने पर भी इन्होने उसे अनाचार न करने का सन्देश भेजा था। जिसे सुनाने के बाद सेनापति प्रहस्त ने लड़्केश से कहा – ” ब्राह्मणातिक्रमत्यागो भवतामेव भूतये, जामदग्न्यश्च वो मित्रमन्यथा दुर्मनायते ” | अर्थात – परशुरामजी को केवल ब्राह्मण समझकर उनकी आज्ञा का उल्लड़्घन नही करना चाहिए इसी मे आपका कल्याण है अन्यथा आपके मित्र जमदग्निनन्दन का मन खिन्न हो जायेगा । इसलिए ये भ्रान्ति मन से निकाल देनी चाहिए कि परशुरामजी किसी जाति विशेष के विरोधी थे ।

 

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