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Way to Spirituality: पुरुषार्थ क्या है ? मनुष्य जीवन के चार पुरुषार्थ कौन से हैं ? जानिए

यदि बाते करें कि मनुष्य जन्म का उद्देश्य या लक्ष्य क्या है ? वेदों में इसे चार प्रकार के पुरुषार्थ में बांटा गया है। चलिए पहले जान लेते हैं कि पुरुषार्थ क्या है ? पुरुषार्थ यानि – पुरुष + अर्थ- अर्थात मनुष्य को ‘क्या’ प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए। वेदों के अनुसार मनुष्य को इस संसार में आकर जो कुछ भी प्राप्त करना है उसे चार भागों में विभाजित किया गया है, वो हैं- धर्म (religion) , अर्थ ( Wealth) , काम ( Work, Desire & Sex)  एवं मोक्ष ( Salvation or Liberation)।

धर्म– धर्म शब्द अत्यन्त गहन, आलौकिक और विशाल है। धर्म कोई उपासना या पद्धति नहीं है बल्कि एक अदभुत जीवन जीने की कला है जहां सबकुछ सात्विक एवं विलक्षण है। मनुष्य जिस देश, राष्ट्र, समाज व लोगों में रहते हुए अपने सत्कर्मों के द्वारा, सत्य की राह पर चलते हुए अपने कर्तव्यों का पालन करता है वही सच्चा धर्म है, या फिर यदि कम शब्दों में समझना हो तो मनुष्य को पशुता से मानवता व अनुशासन की ओर प्रेरित करता है, जीवन में संयम रखकर व ह्दय को पवित्र करके आगे बढ़ना ही धर्म है। इसे और अधिक समझना हो तो ध्यान, साधना व प्रार्थना के मार्ग पर चलकर निराकार पारब्रह्म को पाना है। इसी से मोक्ष प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त होता है।

अर्थः धर्म के बाद मनुष्य के लिए अगला पुरुषार्थ अर्थ है। जिसका तात्पर्य है भौतिक सुख-समृद्धि की प्राप्ति, इसीलिए अर्थोपार्जन के बिना संसार का कार्य नहीं चल सकता। जीवन की प्रगति और सभी सुख-सुविधाओं का आधार धन है। इसीलिए आचार्य कौटिल्य त्रिवर्ग में अर्थ को प्रधान मानते हुए इसे धर्म और काम का मूल माना गया है। भूमि, धन, पशु, मित्र, विद्या, कला और कृषि यह सभी अर्थ की श्रेणी में आते हैं। तो वहीं आचार्य वात्स्यायन ने अर्थ को परिभाषित करते हुए विद्या, सोना, चांदी, धन, धान्य, गृहस्थी का सामान, मित्र का अर्जन एवं जो कुछ भी हमें जीवन में प्राप्त हुआ है वह सब अर्थ है।

कामः जैसा कि नाम से ही काम का अर्थ जाना जा सकता है काम यानि कामना युक्त। लेकिन इसमें भी काम के दो भेद बताए गए हैं- एक वासनाजन्य काम और दूसरा भगवत् प्रेम। सृष्टि को चलाएमान रखने के लिए स्त्री और पुरुष का मेल वो भी यदि मर्यादा में रहकर किया जाए, अन्यथा असंयमित काम को व्याभिचार की संज्ञा दी गई है।

मोक्षः आत्मा को अजर-अमर कहा गया है। यह एक अनादि तत्व है जो या तो बंधन या फिर मुक्ति की अवस्था में रहती है। बद्ध अवस्था में ये अपने कर्मों अनुसार इसी जन्म या अगले जन्म में अपने कर्मफल भोगती है। मानव शरीर को कर्म योनि कहा गया है जबकि अनिय शरीर मात्र भोग योनि है। जो मनुष्य अपने अच्छे कर्मों के द्वारा मनुष्य जन्म में रहते हुए परमात्मा की प्राप्ति कर लेता है उसे ही आत्मा एवं परमात्मा का मिलन कहा जाता है। यही मोक्ष की स्थिति है, मोक्ष प्राप्त करना ही आत्मा का मुख्य उद्देश्य है जो कि मानव जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि है बाकी सब मोह-माया है।

संपादकः मनुस्मृति लखोत्रा