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International Women’s Day: जिनकी कविताओं ने महिलाओं की आवाज़ को बुलंद किया, जानिए

महिला दिवस के शुभ अवसर पर आइए उन सुप्रसिद्ध कवयित्रियों का रचनाएं पढ़ें जिन्होंने साहित्य में अपना महत्वपूर्ण योगदान तो दिया ही लेकिन साथ ही अपनी रचनाओं के द्वारा महिलाओं की आवाज़ को समाज के सामने रखा, उन्हें सशक्त किया।

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अमृता प्रीतम

वारिश शाह से…

आज वारिस शाह से कहती हूँ
अपनी कब्र में से बोलो
और इश्क की किताब का
कोई नया वर्क खोलो
पंजाब की एक बेटी रोई थी
तूने एक लंबी दास्तान लिखी
आज लाखों बेटियाँ रो रही हैं,
वारिस शाह तुम से कह रही हैं
ऐ दर्दमंदों के दोस्त
पंजाब की हालत देखो
चौपाल लाशों से अटा पड़ा हैं,
चिनाव लहू से भरी पड़ी है
किसी ने पाँचों दरिया में
एक जहर मिला दिया है
और यही पानी
धरती को सींचने लगा है
इस जरखेज धरती से
जहर फूट निकला है
देखो, सुर्खी कहाँ तक आ पहुँची
और कहर कहाँ तक आ पहुँचा
फिर जहरीली हवा वन जंगलों में चलने लगी
उसमें हर बाँस की बाँसुरी
जैसे एक नाग बना दी
नागों ने लोगों के होंठ डस लिये
और डंक बढ़ते चले गये
और देखते देखते पंजाब के
सारे अंग काले और नीले पड़ गये
हर गले से गीत टूट गया
हर चरखे का धागा छूट गया
सहेलियाँ एक दूसरे से छूट गईं
चरखों की महफिल वीरान हो गई
मल्लाहों ने सारी कश्तियाँ
सेज के साथ ही बहा दीं
पीपलों ने सारी पेंगें
टहनियों के साथ तोड़ दीं
जहाँ प्यार के नगमे गूँजते थे
वह बाँसुरी जाने कहाँ खो गई
और रांझे के सब भाई
बाँसुरी बजाना भूल गये
धरती पर लहू बरसा
क़ब्रें टपकने लगीं
और प्रीत की शहजादियाँ
मजारों में रोने लगीं
आज सब कैदो बन गए
हुस्न इश्क के चोर
मैं कहाँ से ढूँढ के लाऊँ
एक वारिस शाह और…

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महादेवी वर्मा

मैं नीर भरी दुख की बदली

मैं नीर भरी दुख की बदली!

स्पन्दन में चिर निस्पन्द बसा
क्रन्दन में आहत विश्व हँसा
नयनों में दीपक से जलते,
पलकों में निर्झारिणी मचली!

मेरा पग-पग संगीत भरा
श्वासों से स्वप्न-पराग झरा
नभ के नव रंग बुनते दुकूल
छाया में मलय-बयार पली।

मैं क्षितिज-भृकुटि पर घिर धूमिल
चिन्ता का भार बनी अविरल
रज-कण पर जल-कण हो बरसी,
नव जीवन-अंकुर बन निकली!

पथ को न मलिन करता आना
पथ-चिह्न न दे जाता जाना;
सुधि मेरे आगन की जग में
सुख की सिहरन हो अन्त खिली!

विस्तृत नभ का कोई कोना
मेरा न कभी अपना होना,
परिचय इतना, इतिहास यही-
उमड़ी कल थी, मिट आज चली!

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सुभद्रकुमारी चौहान

अनोखा दान

अपने बिखरे भावों का मैं
गूँथ अटपटा सा यह हार।
चली चढ़ाने उन चरणों पर,
अपने हिय का संचित प्यार॥

डर था कहीं उपस्थिति मेरी,
उनकी कुछ घड़ियाँ बहुमूल्य
नष्ट न कर दे, फिर क्या होगा
मेरे इन भावों का मूल्य?

संकोचों में डूबी मैं जब
पहुँची उनके आँगन में
कहीं उपेक्षा करें न मेरी,
अकुलाई सी थी मन में।

किंतु अरे यह क्या,
इतना आदर, इतनी करुणा, सम्मान?
प्रथम दृष्टि में ही दे डाला
तुमने मुझे अहो मतिमान!

मैं अपने झीने आँचल में
इस अपार करुणा का भार
कैसे भला सँभाल सकूँगी
उनका वह स्नेह अपार।

लख महानता उनकी पल-पल
देख रही हूँ अपनी ओर
मेरे लिए बहुत थी केवल
उनकी तो करुणा की कोर।

                                                                                                                                                                              साभार-कविता कोश

महिला दिवस की हार्दिक बधाई