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Way to Spirituality: श्रेष्ठ जीवन के लिए परमपुरुष में भक्ति अनिवार्य !

परमपुरुष में भक्ति और सांसारिक विषयों में अनासक्ति कह देने भर से अनासक्ति तो नहीं आ जाती ! यह तो बस एक मानसिक विचार है। सिर्फ विचार होने से मन एवं वृत्तियाँ (अहं, काम, क्रोध, मद लोभ आदि) अनासक्त तो नहीं हो सकते !  

मन एवं वृत्तियों की संरचना/ निर्माण ही ऐसी है कि उनमे अनासक्ति उत्पन्न नहीं हो सकती। क्योंकि वे त्रिगुणात्मक प्रकृति से जनमें  है जिसके अस्तित्व का आधार ही आसक्ति है। ऐसा इसलिए है क्योंकि यह प्रकृति ही अपने सृजनकर्त्ता परमपुरुष में आसक्त है। इसलिए प्रकृति से बनी कोई भी चीज़ अनासक्त नहीं हो सकती।

Yashendra
– राय यशेन्द्र प्रसाद
संस्थापक, आर्यकृष्टि वैदिक साधना विहार
वैदिक संस्कृति के अन्वेषक, लेखक, फिल्मकार
भू.पू. सीनियर प्रोड्यूसर एवं निर्देशक, ज़ी नेटवर्क
भू.पू. व्याख्याता ( भूगोल एवं पर्यावरण), मुम्बई

कण-कण, परमाणु-परमाणु, अणु,  तारागण, आकाशगंगा, सौर मण्डल, ग्रह- नक्षत्र, सभी जीवों का मन एवं शरीर, सकल पदार्थ आसक्ति के आधार पर ही टिके हुए हैं। जैसे ही आसक्ति ख़त्म, उनका अस्तित्व ख़त्म (जो संभव नहीं). जिसमें आसक्ति नहीं वह गुणमय जगत में बना रह ही नहीं सकता।  निमिष मात्र के लिए भी !!! जब तक पंचकोषीय शरीर और मन साथ में लगा हुआ है तब तक आसक्ति से छुटकारा नहीं। 

कहाँ मिलेगी यह अनासक्ति ? अपने अन्दर तो यह आसक्त मन एवं वृत्तियों से ढकी हुयी है।  उसी को जगाने के लिए तो अनासक्ति बाहर से लानी होगी !  अनासक्ति जगाने के लिए अनासक्ति में आसक्ति लानी पड़ती है. ….. जैसे माचिस की अग्नि लगा देने से किसी वस्तु  की अन्तर्निहित अग्नि प्रज्ज्वलित हो जाती है। 

तो फिर कहाँ मिलेगी अनासक्ति की तीली ? ……….. हवा, वायुमण्डल या किसी शौपिंग मॉल में तो मिलेगी नहीं। ………. वह मिलेगी सिर्फ किसी अनासक्त व्यक्ति में !! …….  कोई भी भाव ( दया, प्रेम, कृपा, क्रोध, सहिष्णुता, अनासक्ति, आसक्ति ) सिर्फ भाव है — हवाई ख्याल है। इनका अस्तित्व सिर्फ किसी मूर्त्त शरीर में होता है।  

यानि  इनको किसी दयावान, प्रेमी, कृपालु, क्रोधी, अनासक्त और आसक्त व्यक्ति में ही पाया जाता है। 

इसलिए किसी अनासक्त पुरुष में आसक्त होना पड़ेगा।  वे पुरुष ही आदर्श हैं। ……….उनमें अनुरक्ति से ही अपने अन्दर अनासक्ति जागृत होगी।  इस त्रिगुणमय जगत में अनासक्ति ( अनासक्त) से आसक्ति (अनुरक्ति /भक्ति) को ही अनासक्ति कहते हैं। वर्ना  सिर्फ खामख्याली है।

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मन एवं वृत्तियाँ ही माया हैं …..यही प्रकृति है। ….यह सिवा अपने स्वामी ( परमपुरुष) के किसी के वश में नहीं आती।  यह सबको नचाती है, इसको कोई नहीं नाचा सकता।  जब इसको कोई चैलेन्ज करता है या ललकारता है कि  आओ मेरे वश में हो जाओ तो यह काउंटर – चैलेन्ज करती है और कहती है — ‘यो मां जयति संग्रामे, यो मे दर्प व्यपोहति । यो मे प्रति-बलो लोके, स मे भर्त्ता भविष्यति ।।’   ” जो मुझे संग्राम में जीत लेगा, जो मेरा दर्प चूर्ण करेगा, वही मेरा भर्त्ता ( स्वामी /पति) बन सकता है !” ………परन्तु सिवा परमपुरुष के इसका कोई स्वामी नहीं क्योंकि बाकियों को तो इसी ने बनाया है !! सबकी ‘माँ’ यही है। 

बड़े से बड़ा ज्ञानी, तपस्वी, देवता, दानव, वेद -विशारद, पण्डित, बुद्धिजीवी और अमीर इसे वश में नहीं कर पाए !  ब्रह्मा तक का माथा कटवा दिया इसने ! कबीर ने बड़ा सुन्दर वर्णन किया है इस विज्ञान का. 

 माया रघुनाथ की बौरी, खेलन चली अहेरा हो
चतुर चिकनिया चुन-चुन मारे, काहु से राखे न नेरा हो ॥

मौनी वीर दिगम्बर मारे, ध्यान धरंते जोगी हो
जंगल में के जंगम मारे, माया किन्हहुँ न भोगी हो 

वेद पढ़ंते वेदुआ मारे, पूजा करंते सामी हो
अरथ बिचारत पण्डित मारे, बाँधेहु सकल लगामी हो ॥

सिंगी रिषि वन -भीतर मारे, सिर ब्रह्मा का फोरी हो
नाथ मछंदर चले पीठि दै, सिंहलहु में बोरी हो ॥

साकट के घर करता-धरता, हरि-भगतन की चेरी हो 
कहहिं कबीर सुनो हो संतों, जौं वावैं तौं फेरी हों ॥

सो हमें याद रखना है कि माया सिर्फ हरि के भक्तों की चेरी है ! बाकियों को तो वह नचा मारती है ! बड़े बड़े राजा- महाराजा, वेदज्ञ, पंडित, भाग के जंगल में बसे साधु संत….. कोई माया को भोग नहीं पाया। माया ने ही उनको भोग लिया। 

इसलिए मन, वृत्तियों को उनके स्वामी परमपुरुष ही कंट्रोल कर सकते हैं। वे परमपुरुष ही हैं सर्वोच्च आदर्श ! उन्हें ही भगवान् कहते हैं।  पर यहाँ भी वही बात आती है कि ये भगवान् कहाँ दिखेंगे ???? जिस व्यक्ति में भगवत्ता साकार हो, मूर्त्त हो वे ही भगवान् है !!!  कल्पना वाले आसमानी भगवान् नहीं। 

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” जगत् के समस्त ऐश्वर्य–ज्ञानप्रेम एवं कर्म –जिनके अन्दर सहज उत्सारित हैंऔर जिनके प्रति आसक्ति से मनुष्य का विच्छिन्न जीवन एवं जगत् के समस्त विरोधों का चरम समाधान लाभ होता है–वे ही हैं मनुष्य के भगवान।  ……भगवान को जानने का अर्थ ही है समस्त को समझना या जानना। ……किसी मूर्त्त आदर्श में जिनकी कर्ममय अटूट आसक्ति ने समय या सीमा को अतिक्रम कर उन्हें सहज भाव से भगवान बना दिया है–जिनकेकाव्यदर्शन एवं विज्ञान मन के भले-बुरे विच्छिन्न संस्कारों को भेद कर उस आदर्श में ही सार्थक हो उठे हैं–वे ही हैं सद् गुरु। “    – श्री श्री ठाकुर अनुकूलचंद्र जी

ऐसे ही जीवंत परमपुरुष अथवा भगवान् /सदगुरु में अनुरक्ति/आसक्ति /भक्ति से ही अपनी अन्तर्निहित अनासक्ति जागृत होती है …..अपने अन्तर्निहित भगवान् जागृत होते हैं …………….अपने अन्तर्निहित ब्रह्म जागृत होते हैं। ……………………. तब यह बोध एवं दर्शन होता है कि  सोऽहं ! मैं और वे अभेद हैं। 

पर बिना भक्ति की इस प्रक्रिया से गए हुए सिर्फ सोऽहं या अनासक्ति की बात करने से अहंकार के साथ -साथ सभी प्रवृत्तियाँ चढ़ बैठती हैं। … वे तो तैयार ही बैठी हैं–उनको दबाया नहीं जा सकता। “यो मां जयति संग्रामे ….” वाली बात आ जाती है !!

इसलिए नरदेही परमपुरुष कहते हैं — 
मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु । ममेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायणः! -श्रीकृष्ण

बुद्धं शरणम् गच्छामि —- 
‘I am the way, the truth, none can come to the Father but through Me.’ – Jesus. 
पैगम्बर के जरिये गए बिना अल्लाह को कोई जान नहीं सकता ( कलमा). — मोहम्मद 
Carrying out the commands of the Guru without the least hesitation or doubt is the only way to spiritual success.” – Swami Vivekananda.

आपका जीवन ही दूसरों पर निर्भर है। जन्म लेने तक के लिए दूसरों पर निर्भरता है। इस मर्त्यलोक में बिना दूसरों के पल भर भी आप नहीं रह सकते। ऑक्सिजन पेड़ पौधे देते हैं। जल दूसरे तत्त्व देते हैं। दूसरे हट जाएं तो आपके भीतर के ईश्वर भी शरीर छोड़ कर चल देंगे !

माता, पिता, परिवार, समाज, पर्यावरण सबको लेकर हमारा अस्तित्व है। ईश्वर सबमें है। जो आपकी हत्या करने आ रहा उस शत्रु में भी ईश्वर हैं ! जो आतंकवादी है, करप्ट अफसर और नेता है उसमें भी ईश्वर हैं ! 

इसलिए, अपने आपको सही मार्ग पर रखने के लिए, चंचल और विषयासक्त मन को नियंत्रित करने के लिए, इंद्रियों के संयमन के लिए ऐसे गुरु के शरणापन्न होना  है जिसमे भगवत्ता जागृत हो। जिसमें भगवत्ता है वे ही होते हैं भगवान्। भगवान हवा में नहीं रहते, और ना ही मनगढ़ंत कल्पनाओं में। भगवत्ता के गुणों से युक्त शरीरधारी व्यक्ति ही भगवान हैं। 

अपने मन, काम क्रोधादि वृत्तियों और इंद्रियों को नियुक्त करने से आत्मबोध जागृत होता है। अपने अंदर की भगवत्ता जागृत होने लगती है। ठीक वैसे ही जैसे चुम्बक के संस्पर्श में रहते -रहते लोहे में उसका अंतर्निहित चुम्बकत्व जागृत होने लगता है। 

हमारे अंदर का ईश्वर -बोध माया के आवरण से ढका रहता है। यह माया मन के माध्यम से हमे नचाती रहती है। ऐसे में यदि हम खुद को शुरू में ही ईश्वर मान लें तो घोर पतन है, क्योंकि मन हमे अपनी इच्छा से चलाता है। अहंकार ले डूबता है। 

पर यदि हम मन को परमपुरुष सद्गुरु में नियोजित कर देते हैं तो मन पर उनका नियंत्रण हो जाता है। तब हमारे अंदर का ईश्वर जगने लगता है और हमे ‘सोsहं’ का आत्मबोध होने लगता है। 

पर सामान्य जीव ‘सोऽहं’ अवस्था में नहीं रह्ता. उसका मन, चित्त एवं बुद्धि सभी वृत्तियों, आशाओं, तृष्णाओं के चंगुल में रहते हैं।  वह स्वतंत्र रहता ही नहीं। ऐसी अवस्था में यदि वह स्वयं को ईश्वर  समझने लगे तो उसका घोर पतन होगा. अहंकार उसे अंधे कुएँ में पटक देगा. ……क्योंकि उसके ह्रदय,मन एवं बुद्धि में उठ रही हर चाह, इच्छा, भावना एवं सोच उसकी वृत्तियों, आशाओं, तृष्णाओं ( माया) का परिणाम हैं। 

सिर्फ सोच लेने से कोई ईश्वर नहीं हो जाता ! ……अपने अन्दर निहित ईश्वरत्व को जागृत करने के लिए पहले बाहर के कृष्ण के प्रति  पूर्णसमर्पण करना पड़ता है. अपनी सभी वृत्तियों, आशाओं, तृष्णाओं और हर चाह, इच्छा, भावना एवं सोच को उनकी सेवा में नियोजित करना होता है. उनकी लगाम बाहर के कृष्ण को सौंपनी पड़ती है। ………….. तब जाकर धीरे-धीरे कृष्ण स्वयं में जग उठते है। हनुमान, अर्जुन, विवेकानन्द, प्रहलाद सभी ने ऐसा ही किया. 

बाहर के कृष्ण का अर्थ कोई काल्पनिक दर्शन, आदर्श, विचार, फोटो या मूर्ति नहीं है. ……………. बाहर के कृष्ण का अर्थ है कृष्ण-सदृश कोई अवतारित परमपुरुष।  इन्हें युग-पुरुषोत्तम कहा जाता है. ये ही होते हैं साक्षात धर्म…….. देश, काल एवं पात्र के अनुसार पुरुषोत्तम परमपुरुष धर्म समझाते है. ये दुनिया के किसी कोने में, किसी समाज में आविर्भूत हो सकते है। जब ये जीवंत नर-देह में रहें तो ये ही सद् गुरु होते है। यदि पुरुषोत्तम परमपुरुष जीवंत नर-देह में वर्त्तमान नहीं है तो नवीनतम (latest) परमपुरुष के पथ पर चलने वाले कोई महान संत (जीवंत) ही आचार्य रूप में गुरु-रूप में ग्रहणीय हैं।  ऐसे ही आचार्य के प्रति आत्मसमर्पण करना होता है. …………. अन्यथा अपने भीतर के कृष्ण के जागरण की बातें करना अर्थहीन है. अपने अन्दर के कृष्ण की काल्पनिक बातें, काल्पनिक आइडिया, काल्पनिक चित्र, काल्पनिक मूर्ति की उपासना व्यक्ति एवं समाज को पतन के गर्त्त में धकेल देती है. यह व्यक्ति अपने अहंकार, दंभ एवं वृत्तियों तथा तृष्णाओं का गुलाम हो पड़ता है. धर्म से कोसो दूर ! …… आज भारत की यही स्थिति है ! इसलिए सावधान ! 

” भारत की अवनति तभी से आरम्भ हुई जब से भारत-वासियों के लिए अमूर्त्त भगवान् असीम हो उठे;  ऋषियों को छोड़ऋषि-वाद ( केवल विचारधारा/ ग्रन्थ/ बातों/ abstract ideas)  की उपासना शुरू हुई. भारत ! यदि भविष्यत कल्याण का आह्वान करना चाहते हो तो सम्प्रदायगत विरोध को भूलकर जगत के पूर्व-पूर्व गुरुओं के प्रति श्रद्धा सम्पन्न होओ—- और अपने मूर्त्त जीवन्त गुरु वा भगवान् ( Living Ideal) में आसक्त होओ —– और उन्हें ही स्वीकार करो जो उनसे प्रेम करते हैं. क्योंकि पूर्ववर्त्ती (विगत) को अधिकार करके ही परवर्त्ती ( वर्त्तमान) का आविर्भाव होता है.”  -श्री श्रीठाकुर अनुकूलचन्द्र जी