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पक्षीराज गरुड़ को श्री राम के भगवान होने पर संदेह क्यों हुआ ? भगवान शिव ने काकभुशुण्डि के पास गरुड़ को अपना संदेह दूर करने क्यों भेजा ? जानिए !

धर्म एवं आस्थाः ये माना जाता है कि ‘अध्यात्म रामायण’ संसार की पहली रामायण है, जिसे सबसे पहले भगवान शिव ने माता पार्वती को सुनाया था। जब भगवान शिव यह पवित्र कथा माता को सुना रहे थे उस समय यह कथा एक कौवा भी सुन रहा था। उसी कौवे का अगला जन्म काकभुशुण्डि के रूप में हुआ। काकभुशुण्डि को पूर्व जन्म में भगवान शिव से सुनी राम कथा संपूर्ण कण्ठस्थ थी। उन्होने यह कथा अपने शिष्यों को सुनाई। इस प्रकार राम कथा का प्रचार व प्रसार हुआ। कहते हैं कि तुलसीदास की रामायण का आधार भी यही ‘अध्यात्म रामायण’ है। भगवान शिव के मुख से निकली श्रीराम की यह पवित्र कथा ‘अध्यात्म रामायण’ के नाम से विख्यात है।

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काकभुशुण्डि कौन थे ?

इस बारे में भी एक कथा प्रचलित है, कहते हैं कि काकभुशुण्डि लोमश ऋषि के शाप की वजह से कौवा बन गए थे। लोमश ऋषि ने उन्हें शाप मुक्त होने के लिए उन्हें राम मंत्र और इच्छामृत्यु का वरदान दिया। कौवे के रूप में ही उन्होंने अपना पूरा जीवन व्यतीत किया। वाल्मीकि से पहले ही काकभुशुण्डि ने रामायण गिद्धराज गरूड़ को सुना दी थी। गरूड़ काकभुशुण्डि से श्री राम की कथा सुनने कैसे पहुंचे इस बारे में भी एक कथा प्रचलित है। कहते हैं कि जब रावण पुत्र मेघनाथ ने श्रीराम से युद्ध करते हुए श्रीराम को नागपाश से बांध दिया था, तब देवर्षि नारद के कहने पर गरूड़ ने नागपाश के समस्त नागों को खाकर श्रीराम को नागपाश के बंधन से मुक्त कर दिया था। भगवान राम के इस तरह नागपाश में बंध जाने पर श्री राम के भगवान होने पर गरूड़ को संदेह हो गया। गरूड़ का संदेह दूर करने के लिए देवर्षि नारद ने उन्हें ब्रह्मा जी के पास भेजा। ब्रह्माजी उन्हें शिवजी के पास भेज देते हैं। भगवान शिव भी गुरूड़जी का संदेह दूर करने के लिए उन्हें काकभुशुण्डि के पास भेज देते हैं। अंत में काकभुशुण्डि गरूड़ जी को श्री राम के चरित्र की पवित्र कथा सुनाकर उनका संदेह दूर कर देते हैं।

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नीलांचल पर महात्मा काकभुशुण्डि जी ने सत्ताईस कल्प व्यतीत किए। वहां वह सदा भगवान श्री राम का ध्यान, जाप के साथ नियमित रूप से प्रभु की लीला कथा का गुणगान करते थे। जिसे श्रेष्ठ राज हंस आदर पूर्वक सुनते और भगवान शंकर को इस स्थान पर आकर विशेष आनंद प्राप्त होता।

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तुलसीदास द्वारा रचित रामचरितमानस में इस प्रसंग के बारे में बड़ा ही सुंदर व्याख्यान किया गया है जहां भगवान शंकर ने स्वयं अपने मुख से इस कथा को माता पार्वती से कहते हुए बताया था और माता पार्वती द्वारा पूछे गए सभी प्रश्नों के उत्तर वे इस प्रकार देते हैं।

आइए आप भी श्रीरामचरितमानस में से ली गई पवित्र अमृत रस की कुछ बूंदों का आनंद लीजिए और बेहद खूबसूरत प्रसंग को पढ़ें।

जब माता पार्वती भगवान शिव से इस बारे में प्रश्न पूछती हैं

तिन्ह सहस्त्र महुं सब सुख खानी। दुर्लभ ब्रह्म लीन बिग्यानी।।

धर्मसील बिरक्त अरु ग्यानी। जीवनमुक्त ब्रह्मपर प्रानी।।

हज़ारों जीवनमुक्तों में भी सब सुखों की खान, ब्रह्म में लीन विज्ञानवान पुरुष और भी दुर्लभ हैं। धर्मात्मा, वैराग्यवान, ज्ञानी, जीवन मुक्त और ब्रह्मलीन-

सत ते सो दुर्लभ सुरराया। राम भगति रत गत मद माया।।

सो हरिभगति काग किमि पाई। बिस्वनाथ मोहि कहहु बुझाई।।

इन सबमें भी हे देवाधिदेव महादेव! वह प्राणी अत्यंत दुर्लभ है जो मद और माया से रहित होकर राम की भक्ति के परायण हो। हे विश्वनाथ ! ऐसी दुर्लभ हरि भक्ति को कौआ कैसे पा गया, मुझे समझाकर कहिए।

दो.- राम परायन ग्यान रत गुनागार मति धीर।

नाथ कहहु केहि कारन पायउ काक सरीर।। 54।।

हे नाथ! कहिए, (ऐसे) रामपरायण, ज्ञाननिरत, गुणधाम और धीरबुद्धि भुशुंडि ने कौए का शरीर किस कारण पाया ?।।54।।

यह प्रभु चरित पवित्र सुहावा। कहहु कृपाल काग कहं पावा।।

तुम्ह केहि भांति सुना मदनारी। कहहु मोहि अति कौतुक भारी।।

हे कृपालु! बताइए, उस कौए ने प्रभु का यह पवित्र और सुंदर चरित्र कहां पाया ? और हे कामदेव के शत्रु ! यह भी बताइए, आपने इसे किस प्रकार सुना ? मुझे बड़ा भारी कौतूहल हो रहा है।

 गरुड़ महाग्यानी गुन रासी। हरि सेवक अति निकट निवासी।

तेहिं केहि हेतु काग सन जाई। सुनी कथा मुनि निकल बिहाई।।

गरुड़ तो महान ज्ञानी, सद्गुणों की राशि, हरि के सेवक और उनके अत्यंत निकट रहने वाले (उनके वाहन) हैं। उन्होंने मुनियों के समूह को छोड़कर, कौए से जाकर हरिकथा किस कारण सुनी?

कहहु कवन बिधि भा संबादा। दोउ हरिभगत काग उरगादा।।

गौरि गिरा सुनि सरल सुहाई। बोले सिव सादर सुख पाई।।

कहिए, काकभुशुंडि और गरुड़ इन दोनों हरिभक्तों की बातचीत किस प्रकार हुई ? पार्वती की सरल, सुंदर वाणी सुनकर शिव सुख पाकर आदर के साथ बोले-

धन्य सति पावन मति तोरी। रघुपति चरन प्रीति नहिं तोरी।।

सुनहु परम पुनीत इतिहासा। जो सुनि सकल लोक भ्रम नासा।।

हे सती! तुम धन्य हो, तुम्हारी बुद्धि अत्यंत पवित्र है। रघुनाथ के चरणों में तुम्हारा कम प्रेम नहीं है (अत्यधिक प्रेम है)। अब वह परम पवित्र इतिहास सुनो, जिसे सुनने से सारे लोक के भ्रम का नाश हो जाता है।

उपजइ राम चरन बिस्वासा। भव निधि तर नर बिनहिं प्रयासा।।

तथा राम के चरणों में विश्वास उत्पन्न होता है और मनुष्य बिना ही परिश्रम संसाररूपी समुद्र से तर जाता है।

दो.- ऐसिअ प्रस्न बिहंगपति कीन्हि काग सन जाइ।

सो सब सादर कहिहउं सुनहु उमा मन लाई।।55।।

पक्षीराज गरुड़ ने भी जाकर काकभुशुंडि से प्रायः ऐसे ही प्रश्न किए थे। हे उमा! मैं वह सब आदरसहित कहूंगा, तुम मन लगाकर सुनो।।55।।

मैं जिमि कथा सुनी भव मोचनि। सो प्रसंग सुनु सुमुखि सुलोचनि।।

प्रथम दच्छ गृह तव अवतारा। सती नाम तब रहा तुम्हारा।।

मैं जिस प्रकार वह भव (जन्म-मृत्यु) से छुड़ानेवाली कथा सुनी, हे सुमुखी ! हे सुलोचनी! यह प्रसंग सुनो। पहले तुम्हारा अवतार दक्ष के घर हुआ था। तब तुम्हारा नाम सती था।

दच्छ जग्य तव भा अपमाना। तुम्ह अति क्रोध तजे तब प्राना।।

मम अनुचरन्ह कीन्ह मख भंगा। जानहु तुम्ह सो सकल प्रसंगा।।

दक्ष के यज्ञ में तुम्हारा अपमान हुआ। तब तुमने अत्यंत क्रोध करके प्राण त्याग दिए थे, और फिर मेरे सेवकों ने यज्ञ विध्वंस कर दिया था। वह सारा प्रसंग तुम जानती ही हो।

तब अति सोच भयउ मन मोरें। दुखी भयउं बियोग प्रिय तोरें।।

सुंदर बन गिरि सरित तड़ागा। कौतुक देखत फिरउं बेरागा।।

तब मेरे मन में बड़ा सोच हुआ और है प्रिये! मैं तुम्हारे वियोग से दुखी हो गया। मैं विरक्त भाव से सुंदर वन, पर्वत, नदी और तालाबों का कौतुक देखता फिरता था।

गिरि सुमेर उत्तर दिसि दूरी। नील सैल एक सुंदर भूरी।।

तासु कनकमय सिखर सुहाए। चारि चारु मोरे मन भाए।।

सुमेरु पर्वत की उत्तर दिशा में, और भी दूर, एक बहुत ही सुंदर नील पर्वत है। उसके सुंदर स्वर्णमय शिखर हैं, (उनमें से) चार सुंदर शिखर मेरे को बहुत ही अच्छे लगे।

तिन्ह पर एक बिटप बिसाला। बट पीपर पाकरी रसाला।।

सैलोपरि सर सुंदर सोहा। मनि सोपान देखि मन मोहा।।

उन शिखरों में एक-एक पर बरगद, पीपल, पाकर और आम का एक विशाल वृक्ष है। पर्वत के ऊपर एक सुंदर तालाब शोभित है। जिसकी मणियों की सीढ़ियां देखकर मन मोहित हो जाता है।

दो.- सीतल अमल मधुर जल जलज बिपुल बहुरंग।

कूजत कल रव हंस गन गुंजत मंजुल भृंग।।56।।

उसका जल शीतल, निर्मल और मीठा है, उसमें रंग-बिरंगे बहुत से कमल किले हुए हैं, हंसगण मधुर स्वर से बेल रहे हैं और भौरे सुंदर गुंजार कर रहे हैं।।56।।

तेहिं गिरि रुचिर बसइ खग सोई। तासु नास कल्पांत न होई।।

माया कृत गुन दोष अनेका। मोह मनोज आदि अबिबेका।।

उस सुंदर पर्वत पर वही पक्षी (काकभुशुंडि) बसता है। उसका नाश कल्प के अंत में भी नहीं होता। मायारचित अनेकों गुण-दोष, मोह, काम आदि अविवेक,

रहे ब्यापि समस्त जग माहीं। तेहि गिरि निकट कबहुं नहिं जाहीं।।

जहं बसि हरिहि भजइ जिमि कामा। सो सुनु उमा सहित अनुरागा।।

जो सारे में छा रहे हैं, उस पर्वत के पास भी कभी नहीं फटकते। वहां बसकर जिस प्रकार वह काग हरि को भजता है, हे उमा! उसे प्रेम सहित सुनो।

पीपर तरु तर ध्यान सो धरई। जाप जग्य पाकरि तर करई।।

आंब छांह कर मानस पूजा। तजि हरि भजनु काजु नहिं दूजा।।

वह पीपल के वृक्ष के नीचे ध्यान धरता है। पाकर के नीचे जपयज्ञ करता है। आम की छाया में मानसिक पूजा करता है। हरि के भजन को छोड़कर उसे दूजा कोई काम नहीं है।

बर तर कह हरि कथा प्रसंगा। वहिं सुनहिं अनेक बिहंगा।।

राम चरित बिचित्र बिधि नाना। प्रेम सहित कर सादर गाना।।

बरगद के नीचे वह हरि की कथाओं के प्रसंग कहता है। वहां अनेकों पक्षी आते और कथा सुनते हैं। वह विचित्र रामचरित्र को अनेकों प्रकार से प्रेम सहित आदरपूर्वक गान करता है।

सुनहिं सकल मति बिमल मराला। बसहिं निरंतर जे तेहिं ताला।।

जब मैं जाइ सो कौतुक देखा। उर उपजा आनंद बिसेषा।।

सब निर्मल बुद्धिवाले हंस, जो सदा उस तालाब पर बसते हैं, उसे सुनते हैं। जब मैने वहां जाकर यह कौतुक देखा, तब मेरे ह्रदय में विशेष आनंद उत्पन्न हुआ।

जब कछु काल मराल तनु धरि तहं कीन्ह निवास।

सादर सुनि रघुपति गुन पुनि आयउं कैलास।।57।।

तब मैने हंस का शरीर धारण कर कुछ समय वहां निवास किया और रघूनाथ के गुणों को आदर सहित सुनकर फिर कैलाश को लौट आया।।57।।

गिरिजा कहेउं सो सब तिहासा। मैं जेहि समय गयउं खग पासा।।

अब सो कथा सुनहु जेहि हेतू। गयउ काग पहिं खग कुल केतू।।

हे गिरिजे! मैने वह सब इतिहास कहा कि जिस समय मैं काकभुशुण्डि के पास गया था। अब वह कथा सुनो जिस कारण से पक्षी कुल की ध्वजा गरुड़ उस काग के पास गए थे।

जब रघूनाथ कीन्हि रन क्रीड़ा। समुझत चरित होति मोहि ब्रीड़ा।।

इंद्रजीत कर आपु बंधायो। तब नारद मुनि गरुड़ पठायो।।

जब रघूनाथ ने ऐसी रणलीला की जिस लीला का स्मरण करने से मुझे लज्जा होती है- मेघनाद के हाथों अपने को बंधा लिया- तब नारद मुनि ने गरुड़ को भेजा।

बंधन काटि गयो उरगादा। उपजा ह्रदयं प्रचंड बिषादा।।

प्रभु बंधन समुझत बहु भांती। करत बिचार उरग आराती।।

सर्पों के भक्षक गरुड़ बंधन काटकर गए, तब उनके ह्रदय में बड़ा भारी विषाद उत्पन्न हुआ। प्रभु के बंधन को स्मरण करके सर्पों के शत्रु गरुड़ बहुत प्रकार से विचार करने लगे।

ब्यापक ब्रह्म बिरज बागीसा। माया मोह पार परमीसा।।

सो अवतार सुनेउं जग माहीं। देखेउं सो प्रभाव कछु नाहीं।।

जो व्यापक, विकाररहित, वाणी के पति और माया-मोह से परे ब्रह्म परमेश्वर हैं, मैंने सुना था कि जगत में उन्हीं के अवतार है, पर मैंने उस (अवतार) का प्रभाव कुछ भी नहीं देखा।

दो.- भव बंधन ते छूटहि नर जपि कर नाम।

खर्ब निसाचर बांधेउ नागपास सोइ राम।।58।।

जिनका नाम जपकर मनुष्य संसार के बंधन से छूट जाते हैं, उन्हीं राम को एक तुच्छ राक्षस ने नागपाश से बांध लिया।।58।।

नाना भांति मनहिं समुझावा। प्रगट न ग्यान ह्रदयं भ्रम छावा।।

खेद खिन्न मन तर्क बढ़ाई। भयउ मोहबस तुम्हरिहिं नाई।।

गरुड़ ने अनेकों प्रकार से अपने मन को समझाया, पर उन्हें ज्ञान नहीं हुआ, ह्रदय में भ्रम और भी अधिक छा गया। (संदेहजनित) दुख से दुखी होकर, मन में कुतर्क बढ़ाकर वे तुम्हारी ही भंति मोहवश हो गए।

ब्याकुल गयउ देवरिषि पाहीं। कहेसि जो संसय निज मन माहीं।।

सुनि नारदहि लागि अति दाया। सुनु खग प्रबल राम कै माया।।

व्याकुल होकर वे देवर्षि नारद के पास गए और मन में जो संदेह था, वह उनसे कहा। उसे सुनकर नारद को अत्यंत दया आई। (उन्होंने कहा-) हे गरुड़! सुनिए, राम की माया बड़ी ही बलवती है।

जो ग्यानिन्ह कर चित अपहाई। बरिआईं बिमोह मन करई।।

जेहिं बहु बार नचावा मोही। सोइ ब्यापी बिहंगपति तोही।।

जो ज्ञानियों के चित को भी भली-भांति हरण कर लेती है और उनके मन में ज़बरदस्त बड़ा भारी मोह उत्पन्न कर देती है, तथा जिसने मुझको भी बहुत बार नचाया है, हे पक्षीराज! वही माया आपको भी व्याप्त गई है।

महामोह उपजा उर तोरें। मिटिहि न बेगि कहें खग मोरें।।

चतुरानन पहिं जाहु खगेसा। सोइ करेहु जेहि होई निदेसा।।

हे गरुड़! पके ह्रदय में बड़ा भारी मोह उत्पन्न हो गया है। यह मेरे समझाने से तुरंत नहीं मिटेगा। अतः हे पक्षीराज, आप ब्रह्मा के पास जाइए और वहीं जिस काम के लिए देश मिले वही कीजिएगा।

दो.- अस कहि चले देवरिषि करत राम गुन गान।

हरि माया बल बरनत पुनि पुनि परम सुजान।।59।।

ऐसा कहकर परम सुजान देवर्षि नारद राम का गुणगान करते हुए और बारंबार हरि की माया का बल वर्णन करते हुए चले।।59।।

तब खगपति बिरंचि पहिं गयऊ। निज संदेह सुनावत भयऊ।।

सुनि बिरंचि रामहि सिरु नावा। समुझि प्रताप प्रेम अति छावा।।

तब पक्षीराज गरुड़ ब्रह्मा के पास गए और अपना संदेह उन्हें कह सुनाया। उसे सुनकर ब्रह्मा ने राम को सिर नवाया और उनके प्रताप को समझकर उनके मन में अत्यंत प्रेम छा गया।

मन महूं करइ बिचार बिधाता। माया बस कबि कोबिद ग्याता।।

हरि माया कर अमिति प्रभावा। बिपुल बार जेहिं मोहि नचावा।।

ब्रह्मा मन में विचार करने लगे कि कवि, कोविद और ज्ञानी सभी माया के वश हैं। भगवान की माया का प्रभाव असीम है, जिसने मुझ तक को अनेकों बार नचाया है।

अग जगमय जग मम उपराजा। नहिं आचरज मोह खगराजा।।

जब बोले बिधि गिरा सुहाई। जान महेस राम प्रभुताई।।

यह सारा चराचर जगत तो मेरा रचा हुआ है। जब मैं ही मायावश नाचने लगता हूं, तब गरुड़ को मोह होना कोई आश्चर्य की बात नहीं है। तदनंतर ब्रह्मा सुंदर वाणी बोले- राम की महिमा को महादेव जानते हैं।

बैनतेय संकर पहिं जाहू। तात अनत पूछहु जनि काहू।।

तहं होइहि तव संसय हानी। चलेउ बिहंग सुनत बिधि बानी।।

हे गरुड़! तुम शंकर के पास जाओ। हे तात, और कहीं किसी से न पूछना। तुम्हारा संदेह का नाश वहीं होगा। ब्रह्मा का वचन सुनते ही गरुड़ चल दिए।

दो.- परमातुर बिहंगपति आयउ तब मो पास।

जात रहेउं कुबेर गृह रहिहु उमा कैलास।।60।।

जब बड़ी आतुरता से पक्षीराज गरुड़ मेरे पास आए। हे उमा! उस समय मैं कुबेर के घर जा रहा था और तुम कैलास पर थीं।।60।।

तेहिं मम पद सादर सिरु नावा। पुनि आपन संदेह सुनावा।।

सुनि ता करि बिनती मृदु बानी। प्रेम सहित मैं कहेउं भवानी।।

गरुड़ ने आदरपूर्वक मेरे चरणों में सिर नवाया और फिर मुझको अपना संदेह सुनाया। हे भवानी! उनकी विनती और कोमल वाणी सुनकर मैंने प्रेमसहित उनसे कहा-

मिलेहु गरुड़ मारग महं मोही। कवन भांति समुझावां तोही।।

तबहि होइ सब संसय भंगा। जब बहु काल करिअ सतसंगा।।

है गरुड़, तुम मुझे रास्ते में मिले हो। राह चलते मैं तुम्हें किस प्रकार समझाऊं? सब संदेहों का तो तभी नाश हो जब दीर्घ काल तक सत्संग किया जाए।

सुनिअ तहां हरिकथा सुहाई। नाना भांति मुनिन्ह जो गाई।।

जेहि महुं आदि मध्य अवसाना। प्रभु प्रतिपाद्य राम भगवाना।।

और वहां (सत्संग) में सुंदर हरिकथा सुनी जाए जिसे मुनियों ने अनेकों प्रकार से गाया है और जिसके आदि, मध्य और अंत में भगवान राम ही प्रतिपाद्य प्रभु हैं।

नित हरि कथा होत जहम भाई। पठवउं तहां सुनहु तुम्ह जाई।।

जाइहि सुनत सकल संदेहा। राम चरन होइहि अति नेहा।।

हे भाई, जहां प्रतिदिन हरिकथा होती है, तुमको मैं वहीं भेजता हूं। तुम जाकर उसे सुनो। उसे सुनते ही तुम्हारा सब संदेह दूर हो जाएगा और तुम्हें राम के चरणों में अत्यंत प्रेम होगा।

इसके बाद गरुड़ काकभशुण्डि के पास अपना संदेह दूर करने जाते हैं और श्री रामकथा और महिमा का वर्णन सुनकर धन्य हो जाते हैं।

 

संपादकः मनुस्मृति लखोत्रा