संकलयिता – राय यशेन्द्र प्रसाद
#सम्भवामि_युगे_युगे_01
” पूरयमाण परम आचार्य गुरू-पुरुषोत्तम
या परम स्व॒तःसंत या तथागत का आविर्भाव
किसी बँधे स्थान या प्रथा के
द्वारा होगा
ऐसी कोई बात नहीं;
विशेष कोई जाति ही हो
विशेष कोई वर्ण ही हो
विशेष कोई धर्मसंस्था या द्विजाधिकरण ही हो
उसके अन्दर ही जो उनका अभ्युदय होगा —
उसकी कोई निश्चितता नहीं;
वे धनी के घर में भी आविर्भूत हो सकते हैं,
महादरिद्र के घर में भी आविर्भूत हो सकते हैं,
अत्यंत हीन जाति के घर में भी आविर्भूत हो सकते हैं,
अत्यंत उच्चजाति के घर में भी आविर्भूत हो सकते हैं,
किन्तु यह ठीक ही है,
चाहे वे जहाँ भी आयें, जिनके बीच वे आविर्भूत क्यों न हों,
वे सश्रद्ध इष्टार्थ-परायण, सहज एवं सलील अनुकम्पा-अनुसृत
आकूति-प्रवण होकर ही प्रायः रहते हैं.
जहाँ गणसत्ता का उत्क्रमणी आह्वान
केन्द्रायित होकर
अनुकम्पा-घन होकर
सुदृढ़ आकूति-उच्छल हो रहता है;
और उसी देश में उनका आविर्भाव होता है–
जिस देश के समाज-नियन्तागण
ऐसे एक विपाक आवर्त्तन की सृष्टि कर देते हैं
जिसके द्वारा लोक का सत्ता-संरक्षणी उत्कण्ठ आवेग
दीर्घ निःश्वास सहित उद्भिन्न हो
अनजान चाह से
‘तुम आओ, बचाओ !’ कहते हुए
आह्वान करता है,
और यही होता है उनके आविर्भाव का आगम-आह्वान ;
इसीलिए, किसी मनगढ़न्त बँधी हुई नीति की बेड़ी में आबद्ध होकर
किसी सम्प्रदाय, समाज या संहति में ही
उनका अभ्युत्थान नहीं भी हो सकता है.
क्योंकि, वे सभी सम्प्रदाय, सभी समाज,
सभी द्विजाधिकरण के ही परिपूरक हैं,
सत्ता-संरक्षी अभ्युदय के उद्गाता हैं,
वैशिष्ट्यपाली व्यक्ति-स्वातंत्री लोकतंत्र-विधायक हैं.
कहने का सार है,
दुनिया की इच्छा जहाँ आकुल स्वर से
मूक-गम्भीर वेदन-उत्कण्ठा से
सुकेन्द्रिक आग्रह- अपेक्षा में
चकित चलन से अपेक्षा करती है–
वाक्य, व्यवहार एवं चाल-चलन की
समंजसा आकूति लिए
उनका वहाँ प्रायशः आविर्भाव भी होता है ।”
–श्रीश्री ठाकुर अनुकूलचंद्र जी
( आदर्श-विनायक, वाणी संख्या –233 )