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Religion & Faith : ‘महिला सम्मान’ का प्रतिनिधित्व करती ‘देवी दुर्गा’, जानिए कैसे ?

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Editor : Manusmriti Lakhotra at theworldofspiritual.com

धर्म एवं आस्थाः दुर्गा पूजन के नौं दिन यानि नवरात्रि, ये नौं दिन वो हैं जब शक्ति की अधिष्ठात्री देवी मां दुर्गा जो कि सर्व मंगलकारिणी हैं, उनके नौं रूपों की पूजा-आराधना की जाती है। इन नौं दिनों में मां दुर्गा का आर्शीवाद प्राप्त करने के लिए देशभर में उत्साह देखने को मिलता है लेकिन बंगाली समाज में दुर्गा पूजन को लेकर विशेष उत्साह देखा जाता है। इस समाज की सबसे खास बात ये है कि यहां दुर्गा मां की पूजा आराधना से लेकर मूर्ति विसर्जन तक ये उत्सव बेहद खुशी व उत्साह से परिपूर्ण, अद्वीतिय व अविस्मरणीय होता है। महिलाएं देवी की तरह ही सजती संवरती है, नाचती-गाती हैं, ऐसा लगता है मानो उन पर मां दुर्गा का ही रूप चढ़ आया हो।

नवरात्र के छठे दिन, यानी षष्ठी को मां दुर्गा की मूर्ति को पंडाल में स्थापित किया जाता है, और शाम को उनके मुख से आवरण हटाया जाता है। कहा गया है कि दुर्गा मां, गणेश, कार्तिकेय, लक्ष्मी और सरस्वती के साथ 10 दिनों के लिए अपने मायके आती हैं। हर पंडाल में देवी की पूजा की जाती है और खुशियां मनाई जाती हैं। सबकुछ ठीक वैसा ही होता है जैसे जब कोई बेटी अपने मायके आती है तो सारे परिवार में एक खुशी की लहर होती है ठीक वैसे ही, ये 4 दिन बहुत मुख्य माने गए हैं, और दशमी को सुबह महिलाएं मां दुर्गा की प्रतिमा को सिंदूर लगाने पंडाल आती हैं और वहां सिंदूर की होली खेलती हैं। इसे ‘सिंदूर खेला’ कहा जाता है, और इसके बाद देवी की प्रतिमा को विदाई दी जाती है, उन्हें विसर्जित कर दिया जाता है।

इस दिन हर महिलाएं मां दुर्गा को बेटी की तरह विदाई देती हैं। यहां ध्यान देने वाली बात ये है कि दुर्गा जो पूरे संसार की मां हैं, वो इस दिन बेटी की तरह विदा होती हैं, और उन्हें हंसी-खुशी विदा करने की ही परंपरा है, कोई रोता नहीं क्योंकि अगले साल मां को फिर आना ही है। यानी हर महिला के दिल में मां दुर्गा के लिए बेटी जैसा प्यार है, इस प्रकार इस उत्सव को समाज में एक महिला के अस्तित्व, उसके सम्मान और महत्व के साथ जोड़कर देखा जाता है।

इस त्यौहार की एक और सबसे खास बात है कि जिसे महिला सम्मान के साथ जोड़कर देखा जाता है। पारंपरिक मान्यताओं के अनुसार देवी की मूर्ति बनाने के लिए कुछ चीजें बेहद जरूरी मानी गई हैं जैसे गौमूत्र, गोबर, लकड़ी, जूट के ढांचे, सिंदूर, धान के छिलके, पवित्र नदियों की मिट्टी, विशेष वनस्पतियां और निषिद्धो पाली की रज, (निषिद्धो पाली – यानी वर्जित क्षेत्र और रज यानी मिट्टी) इसका मतलब है बाकी चीजों से साथ-साथ उस जगह की मिट्टी भी जरूरी है जो वर्जित क्षेत्र है। यानी वेश्यालय की, इस मिट्टी को यदि दुर्गा मां की मूर्ति बनाने के लिए उपयोग न किया जाए तो मां की मूर्ति अधूरी मानी जाती है और दुर्गा मां की प्राण प्रतिष्ठा नहीं होती। जबकि वेश्यालय एक ऐसा स्थान है जिसे अपवित्र माना जाता है। जहां समाज में देह व्यापार करने वाली महिलाओं को घृणा की नज़र से देखा जाता है ऐसे में वहां की मिट्टी कैसे ली जा सकती है ?

  • दरअसल, इसके पीछे भी एक कथा प्रचलित है ऐसा माना जाता है कि, एक वेश्या दुर्गा मां की बहुत बड़ी भक्त थी। लेकिन वेश्या होने की वजह से समाज उसका तिरस्कार करता था। तब मां ने अपनी इस भक्त को तिरस्कार से बचाने के लिए उसे वरदान दिया था कि उसके हाथ से दी हुई मिट्टी से ही देवी की मूर्ति बनेगी और इस मिट्टी के उपयोग के बिना प्रतिमाएं पूरी नहीं होंगी। जानकारों के मुताबिक शारदा तिलकम, महामंत्र महार्णव, मंत्रमहोदधि आदि ग्रंथों में इसकी पुष्टि की गई है।
  • एक अन्य मान्यता के अनुसार जब कोई व्यक्ति किसी वेश्यालय के अंदर जाता है तो वह अपनी सारी पवित्रता वेश्यालय की चौखट के बाहर ही छोड़ देता है और इसलिए चौखट के बाहर की मिट्टी पवित्र हो जाती है.
  • ऐसा भी कहा जाता है कि ये मिट्टी समाज की वो लालसाएं हैं जो कोठों पर जमा हो जाती हैं। इसे दुर्गा को अर्पित किया जाता है ताकि जिन्होंने ग़लतियां की हैं, उन्हें पापों से मुक्ति मिल जाए। इसलिए दुर्गा पूजा के दौरान वेश्यालय की मिट्टी का उपयोग दुर्गा की मूर्ति बनाने के लिए किया जाता है।

इन सारी मान्यताओं को लेकर सभी के अपने विचार और सोच है लेकिन सच यही है की इन मान्यताओं के पीछे कहीं न कहीं समाज में महिलाओं को सम्मान देने की बात कही गई है और पूरुषप्रधान समाज को भी ये नसीहत देने की कोशिश की गई है कि कोई भी महिला स्वयं देह व्यापार में नहीं जाना चाहती कहीं न कहीं ये पेशा उन्हें पुरुषों की लालसाओं को पूरा करने के लिए ही चुनना पड़ता है, तो उनका तिरस्कार क्यों ? वो भी किसी की मां, बहन व बेटी होती हैं। एक तरफ हमारा समाज महिला को पूजता है तो वहीं दूसरी तरफ महिला को वेश्यालय में भेजने का भी जिम्मेदार होता है। इस प्रथा के जरिए साल में एक बार ही सही वेश्याओं के आगे पंडितों को भी हाथ फैलाने पड़ते हैं। महिला सम्मान और महिला सशक्तिकरण का इससे बड़ा उदाहरण क्या हो सकता है जहां मां दुर्गा तक उस मूर्ति में प्राण-प्रतिष्ठा स्वीकार नहीं करती जिस मूर्ति में वेश्यालय की मिट्टी नहीं होती।

संपादकः मनुस्मृति लखोत्रा