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हज़ारों वर्षों से पवित्र गंगा में विसर्जित हो रही अस्थियां आख़िर जाती कहां हैं ?

पवित्र पतितपावनी मां गंगा हम सबकी अटूट आस्था का प्रतीक, जो किसी धर्म, जाति, नस्ल, रंग, रूप, अमीर-गरीब में फर्क नहीं करती। जो अपने पवित्र जल से सबको पापों से मुक्ती देती हैं। अंतकाल में जब इंसान से उसकी देह तक नाता तोड़ लेती है तब मां गंगा ही मृत व्यक्ति को अपनी गोद में ले लेती है  व उसकी आत्मा को तृप्ति प्रदान करती है। हमारे पुराणों के अनुसार गंगा मां विष्णु लोक से अवतरित होती हुई भगवान शिव की जटा में अपने तीव्र जल के वेग को कम करके फिर धरती पर उतरती है। स्वार्थी तो हम लोग हैं जो मां गंगा को प्रदूषित करते ही जा रहें हैं लेकिन पवित्र गंगा फिर भी अपने श्रद्धालुओं को निराश नहीं करती।

पौराणिक कथाओं में भी वर्णित है कि एक बार मां गंगा भगवान विष्णु से मिलने बैकुंठ धाम गई और उनके आगे बड़ी ही विनम्रता से बोली कि प्रभु! जो कोई भी मेरे जल में स्नान करने आता है उसको सभी पापों से मुक्ति मिल जाती है लेकिन इतने पापों का बोझ मैं कैसे उठा पाऊंगी? उन्हें कैसे समाप्त करुंगी ? तब भगवान विष्णु बोले हे गंगा! जब भक्त, साधु-संत, वैष्णव आकर आपके जल में डुबकी लगाएंगे तो उनके सभी पाप धुल जाएंगे व वो सीधे बैकुंठ धाम आएंगे। इसलिए ये माना जाता है कि गंगा में अस्थि विसर्जन से मृत व्यक्ति की आत्मा सीधा बैकुंठ धाम जाती हैं।

अगर वैज्ञानिक दृष्टि से देखें तो सबसे बड़ा प्रश्न ये है कि आख़िर हज़ारों वर्षों से पवित्र गंगा में अनगिनत अस्थियां विसर्जित की गई हैं यहां तक कि आज भी कई जगह मृत व्यक्ति की देह को ही प्रवाहित कर दिया जाता है। इसके बावजूद गंगा का जल एकदम पवित्र एवं पावन कैसे ? गंगा के जिस घाट पर केवल अस्थियां ही विसर्जित की जाती हैं थोड़ी देर बाद वहां कुछ भी नहीं मिलता। ऐसा माना जाता है कि जब से गंगा में अस्थियां व मृत देह प्रवाहित होना शुरु हुई थी तब से लेकर आज तक अगर उनका आंकलन किया जाए तो शायद 4 या 5 हिमालय पर्वत जितने विशाल अस्थियों के पहाड़ बन जाते।

सच में ये कितना आश्चर्यचकित कर देने वाला विषय है कि अन्य नदियों की अपेक्षा गंगा में हर वर्ष ढेरों अस्थियां, मृत देह प्रवाहित होती हैं लेकिन उस स्थान से आगे उनका नामों निशां तक नहीं मिलता।

हालांकि जिस गंगा घाट पर अस्थि विसर्जन होता है कई वैज्ञानिकों ने वहां के घाट से लेकर गंगासागर तक का जल ले जाकर गहन शोध भी किया है ताकि पता लगाया जा सके कि इसके पीछे क्या कोई वैज्ञानिक कारण है या धार्मिक। जिसका असल कारण जानने के लिए शोध अभी तक चल रहे हैं लेकिन जो संभावनाएं आंकी गई वो ये थी कि गंगाजल में पारा अर्थात मरकरी विद्यमान रहता है जिससे हड्डियों में पाया जाने वाला कैल्शियम और फॉस्फोरस पानी में घुल जाता है, जो जल में पाए जाने वाले जीव-जंतुओं के लिए पौष्टिक आहार है। वैज्ञानिक दृष्टि से हड्डियों में गंधक (सल्फर) विद्यमान होता है जो पारे के साथ मिलकर पारद का निर्माण करता है। उसके साथ-साथ ये दोनों मिलकर मरकरी सल्फाइड सॉल्ट का निर्माण करते हैं और हड्डियों में बचा शेष कैल्शियम पानी को स्वच्छ रखने का कार्य करता रहता है। धार्मिक दृष्टि से ये भी माना जाता है कि पारद शिव का प्रतीक है और गंधक शक्ति का प्रतीक। इसलिए कह सकते हैं कि अंतत: सभी जीव शिव और शक्ति में ही विलीन हो जाते हैं।

वैज्ञानिक दृष्टि से इस शोध को किए हुए वर्षों बीत चुके हैं। जिससे ये भी अनुमान लगाया गया कि गंगाजल में मौजूद बैक्टीरियोफेज़ नामक जीवाणु गंगाजल में मौजूद हानिकारक सूक्ष्म जीवों को जीवित नहीं रहने देते यानि ये जीवाणु जल में गंदगी और बीमारी फैलाने वाले जीवाणुओं को नष्ट कर देते हैं। ऐसा भी माना जाता है कि गंगाजल में प्राणवायु की प्रचुरता बनाए रखने की अदभुत क्षमता है। इसी कारण गंगाजल से हैजा व पेचिस जैसी बीमारियों का खतरा बहुत कम हो जाता है। गंगाजल न ही कभी खराब भी नहीं होता चाहे इसे वर्षों घर में किसी बोतल में भरकर रखा जाए। इसलिए सनानत धर्म को मानने वाले हर व्यक्ति के घर में गंगाजल अवश्य मिलता है। जिसके बिना कोई भी पूजा, हवन व यज्ञ भी संपूर्ण नहीं होता।