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श्री गणेश चालीसा (अर्थ सहित )

॥दोहा॥

जय गणपति सदगुणसदन, कविवर बदन कृपाल। 
विघ्न हरण मंगल करण, जय जय गिरिजालाल॥

हे सदगुणों के सदन भगवान श्री गणेश आपकी जय हो, कवि भी आपको कृपालु बताते हैं। आप कष्टों का हरण कर सबका कल्याण करते हो, माता पार्वती के लाडले श्री गणेश जी महाराज आपकी जय हो।

॥चौपाई॥

जय जय जय गणपति गणराजू। मंगल भरण करण शुभ काजू।।

जै गजबदन सदन सुखदाता। विश्व विनायक बुद्घि विधाता॥ . 
वक्र तुण्ड शुचि शुण्ड सुहावन। तिलक त्रिपुण्ड भाल मन भावन॥ 
राजत मणि मुक्तन उर माला। स्वर्ण मुकुट शिर नयन विशाला॥ 
पुस्तक पाणि कुठार त्रिशूलं । मोदक भोग सुगन्धित फूलं ॥

सुन्दर पीताम्बर तन साजित । चरण पादुका मुनि मन राजित ॥ 
धनि शिवसुवन षडानन भ्राता । गौरी ललन विश्वविख्याता ॥ 
ऋद्घिसिद्घि तव चंवर सुधारे । मूषक वाहन सोहत द्घारे ॥

हे देवताओं के स्वामी, देवताओं के राजा, हर कार्यको शुभ व कल्याणकारी करने वाले भगवान श्री गणेश जी आपकी जय हो, जय हो। घर-घर सुख प्रदान करने वाले हे हाथी से विशालकाय शरीर वाले गणेश भगवान आपकी जय हो। श्री गणेश आप स्मस्त विश्व के विनायक यानि विशिष्ट नेता हैं, आप ही बुद्धि के विधाता है बुद्धि देने वाले हैं। हाथी के सूंड सा मुड़ा हुआ आपका नाक सुहावना है पवित्र है।आपके मस्तक पर तिलक रूपी तीन रेखाएं भी मन को भा जाती हैं अर्थात आकर्षक हैं।

आपकी छाती पर मणि मोतियां की माला है आपके शीष पर सोने का मुकुट है व आपकी आंखें भी बड़ी हैं। आपके हाथों में पुस्तक, कुठार और त्रिशूल हैं। आपको मोदक का भोग लगाया जाता है वसुगंधित फूल चढ़ाए जाते हैं। पीले रंग के सुंदर वस्त्र आपके तन पर सज्जित हैं।आपकी चरण पादुकाएं भी इतनी आकर्षक हैं कि ऋषि मुनियों का मन भी उन्हें देखकर खुश हो जाता है। हे भगवान शिव के पुत्र व षडानन अर्थात कार्तिकेय के भ्राता आप धन्यहैं। माता पार्वती के पुत्र आपकी ख्याति समस्त जगत में फैली है। ऋद्धि-सिद्धि आपकी सेवा में रहती हैं व आपके द्वार पर आपका वाहन मूषक खड़ा रहता है।

कहौ जन्म शुभकथा तुम्हारी । अति शुचि पावन मंगलकारी ॥

एक समय गिरिराज कुमारी । पुत्र हेतु तप कीन्हो भारी ॥ 
भयो यज्ञ जब पूर्ण अनूपा । तब पहुंच्यो तुम धरि द्घिज रुपा ॥ 
अतिथि जानि कै गौरि सुखारी । बहुविधि सेवा करी तुम्हारी ॥ 
अति प्रसन्न है तुम वर दीन्हा । मातु पुत्र हित जो तप कीन्हा ॥

मिलहि पुत्र तुहि, बुद्घि विशाला । बिना गर्भ धारण, यहि काला ॥ 
गणनायक, गुण ज्ञान निधाना । पूजित प्रथम, रुप भगवाना ॥ 
अस कहि अन्तर्धान रुप है । पलना पर बालक स्वरुप है ॥

हे प्रभु आपकी जन्मकथा को कहना व सुनना बहुत ही शुभ व मंगलकारी है। एक समय गिरिराज कुमारी यानि माता पार्वती ने पुत्र प्राप्ति के लिए भारी तप किया। जब उनका तप व यज्ञ अच्छे से संपूर्ण हो गया तो ब्राह्मण के रूप में आप वहां उपस्थित हुए। आपको अतिथि मानकर माता पार्वती ने आपकी अनेक प्रकार से सेवा की, जिससे प्रसन्न होकर आपने माता पार्वती को वर दिया। आपने कहा कि हे माता आपने पुत्र प्राप्ति के लिए जो तप कियाहै, उसके फलस्वरूप आपको बहुत ही बुद्धिमान बालक की प्राप्ति होगी और बिना गर्भ धारण किए इसी समय आपको पुत्र मिलेगा। जो सभी देवताओं का नायक कहलाएगा, जो गुणों व ज्ञान का निर्धारण करने वाला होगा और समस्त जगत भगवान के प्रथम रूप में जिसकी पूजा करेगा। इतना कहकर आप अंतर्धान हो गए व पालने में बालक के स्वरूप में प्रकट हो गए।

बनि शिशु, रुदन जबहिं तुम ठाना। लखि मुख सुख नहिं गौरि समाना ॥

सकल मगन, सुखमंगल गावहिं । नभ ते सुरन, सुमन वर्षावहिं ॥ 
शम्भु, उमा, बहु दान लुटावहिं । सुर मुनिजन, सुत देखन आवहिं ॥ 
लखि अति आनन्द मंगल साजा । देखन भी आये शनि राजा ॥ 
निज अवगुण गुनि शनि मन माहीं । बालक, देखन चाहत नाहीं ॥

माता पार्वती को उठाते ही आपने रोना शुरु किया, माता पार्वती आपको गौर से देखती रही आपका मुख बहुत ही सुंदर था माता पार्वती में आपकी सूरत नहीं मिल रही थी। सभी मगन होकर खुशियां मनाने लगे नाचने-गाने लगे. देवता भी काश से फूलों की वर्षा करने लगे। भगवान शंकर माता उमा दान करने लगी।

देवता, ऋषि, मुनि सब आपके दर्शन करने के लिएआने लगे। आपको देखकर हर कोई बहुत आनंदित होता। आपको देखने के लिए भगवान शनिदेव भी आये। लेकिन वह मन ही मन घबरा रहे थे (दरअसल शनि को अपनी पत्नी से श्राप मिला हुआथा कि वे जिस भी बालक पर मोह से अपनी दृष्टि डालेंगे उसका शीष धड़ से अलग होकर आसमान में उड़ जाएगा) और बालक को देखना नहीं चाह रहे थे।

गिरिजा कछु मन भेद बढ़ायो । उत्सव मोर, न शनि तुहि भायो ॥ 
कहन लगे शनि, मन सकुचाई । का करिहौ, शिशु मोहि दिखाई ॥ 
नहिं विश्वास, उमा उर भयऊ । शनि सों बालक देखन कहाऊ ॥ 
पडतहिं, शनि दृग कोण प्रकाशा । बोलक सिर उड़ि गयो अकाशा ॥

शनि देव को इस तरह बचते हुए देखकर माता पार्वती नाराज हो गई व शनि को कहा कि आप हमारे यहां बच्चे के आने से व इस उत्सव को मनता हुआ देखकर खुश नहीं हैं। इस पर शनि भगवान नेकहा कि मेरा मन सकुचा रहा है, मुझे बालक को दिखाकर क्या करोगी? कुछ अनिष्ट हो जाएगा। लेकिन इतने पर माता पार्वती को विश्वास नहीं हुआ व उन्होंने शनि को बालक देखने के लिए कहा। जैसे ही शनि की नजर बालक पर पड़ी तो सिर आकाश में उड़ गया।

गिरिजा गिरीं विकल है धरणी । सो दुख दशा गयो नहीं वरणी ॥ 
हाहाकार मच्यो कैलाशा । शनि कीन्हो लखि सुत को नाशा ॥ 
तुरत गरुड़ चढ़ि विष्णु सिधायो । काटि चक्र सो गज शिर लाये ॥ 
बालक के धड़ ऊपर धारयो । प्राण, मन्त्र पढ़ि शंकर डारयो ॥

नाम गणेश शम्भु तब कीन्हे । प्रथम पूज्य बुद्घि निधि, वर दीन्हे ॥

अपने शिशु को सिर विहिन देखकर माता पार्वती बहुत दुखी हुई व बेहोश होकर गिर गई। उस समय दुख के मारे माता पार्वती की जो हालत हुई उसका वर्णन भी नहीं किया जा सकता। इसके बाद पूरे कैलाश पर्वत पर हाहाकार मच गया कि शनि ने शिव-पार्वती के पुत्र को देखकर उसे नष्ट कर दिया। उसी समय भगवान विष्णु गरूड़ पर सवार होकर वहां पहुंचे व अपने सुदर्शन चक्र से हाथी का शीश काटकर ले आये।

इस शीषको उन्होंने बालक के धड़ के ऊपर धर दिया। उसके बाद भगवान शंकर ने मंत्रों को पढ़कर उसमें प्राण डालें। उसी समय भगवान शंकर ने आपका नाम गणोश रखा व वरदान दिया किसंसार में सबसे पहले आपकी पूजा की जाएगी। बाकि देवताओं ने भी आपको बुद्धि निधि सहित अनेक वरदान दिये।

बुद्घि परीक्षा जब शिव कीन्हा । पृथ्वी कर प्रदक्षिणा लीन्हा ॥ 
चले षडानन, भरमि भुलाई। रचे बैठ तुम बुद्घि उपाई ॥ 
चरण मातुपितु के धर लीन्हें । तिनके सात प्रदक्षिण कीन्हें ॥

धनि गणेश कही शिवहिये हरषे। नभते सुरन सुमन बहु बरसे।।

जब भगवान शंकर ने कार्तिकेय व आपकी बुद्धि की परीक्षा ली तो पूरी पृथ्वी का चक्कर लगा आनेकी कही। आदेश होते ही कार्तिकेय तो बिना सोचे विचारे भ्रम में पड़कर पूरी पृथ्वी का ही चक्कर लगाने के लिए निकल पड़े, लेकिन आपने अपनी बुद्धि लड़ाते हुए उसका उपाय खोजा। आपने अपने माता पिता के पैर छूकर उनके ही सात चक्कर लगाये। इस तरह आपकी बुद्धि व श्रद्धा को देखकर भगवान शिव बहुत खुश हुए व देवताओं ने आसमान से फूलों की वर्षा की।

तुम्हरी महिमा बुद्घि बड़ाई । शेष सहसमुख सके न गाई ॥ 
मैं मतिहीन मलीन दुखारी । करहुं कौन विधि विनय तुम्हारी ॥ 
भजत रामसुन्दर प्रभुदासा । जग प्रयाग, ककरा, दर्वासा ॥ 
अब प्रभु दया दीन पर कीजै । अपनी शक्ति भक्ति कछु दीजै ॥

हे भगवानश्री गणेश आपकी बुद्धि व महिमा का गुणगान तो हजारों मुखों से भी नहीं किया जासकता। हे प्रभु मैं तो मूर्ख हूं, पापी हूं, दुखिया हूं मैं किस विधि से आपकी विनय आपकी प्रार्थना करूं।हे प्रभु आपका दास रामसुंदर आपका ही स्मरण करता है। इसकी दुनिया तो प्रयाग का ककरा गांव हैं जहां पर दुर्वासा जैसे ऋषि हुए हैं। हे प्रभु दीन दुखियों पर अब दया करोऔर अपनी शक्ति व अपनी भक्ति देनें की कृपा करें।

॥दोहा॥

श्री गणेश यह चालीसा, पाठ करै कर ध्यान। 
नित नव मंगल गृह बसै, लहे जगत सन्मान॥ 
सम्बन्ध अपने सहस्त्र दश, ऋषि पंचमी दिनेश। 
पूरण चालीसा भयो, मंगल मूर्ति गणेश ॥

श्री गणेश की इस चालीसा का जो ध्यान से पाठ करते हैं। उनके घर में हर रोज सुख शांति आती रहती है उसे जगत में अर्थात अपने समाज में प्रतिष्ठा भी प्राप्त होती है। सहस्त्र यानि हजारों संबंधों का निर्वाह करते हुए भी ऋषि पंचमी (गणेश चतुर्थी से अगले दिन यानि भाद्रप्रद माह के शुक्ल पक्ष की पंचमी) के दिन भगवान श्री गणेश की यह चालीसा पूरी हुई।