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Blog : आत्मा के शरीर में प्रवेश, गर्भाधान एवं पुनर्जन्म के कुछ तथ्य !

आत्मा के उपर पञ्च-कोषीय आवरण है. यानि शरीर के पञ्च कोष हैं. सांसारिक मृत्यु सिर्फ अन्नमय कोष की होती है. बाकी कोषों का आवरण बना रहता है. मृत्यु से मुक्ति का कोई सम्बन्ध नहीं है. यह बहुत बड़ी गलतफहमी है कि मृत्यु का अर्थ मुक्ति या छुटकारा है. यदि किसी को मुक्ति प्राप्त होती है तो जीवन में ही होती है. मरने के बाद नहीं.

Yashendra
लेखक – राय यशेन्द्र प्रसाद
संस्थापक, आर्यकृष्टि वैदिक साधना विहार
वैदिक संस्कृति के अन्वेषक, लेखक, फिल्मकार
भू.पू. सीनियर प्रोड्यूसर एवं निर्देशक, ज़ी नेटवर्क
भू.पू. व्याख्याता ( भूगोल एवं पर्यावरण), मुम्बई

मृत्यु क्या है ?
— मानो एक व्यक्ति कार से कहीं जा रहा है। कार पुरानी थी, खराब होकर बंद पड़ गई। अब वह व्यक्ति वहीं खड़ा रहेगा, जब तक कि कोई और कार उसे न मिले, तभी वह आगे बढ़ पायेगा।
– मानो हम कोई काम कर रहे हैं. नींद आ गई और हम सो गए. हो सकता है उस काम के बारे में स्वप्न में भी सोचते रहें ( निद्रा मृत्यु का रूप है). कर्म नहीं हो सकता इस स्थिति में, जब नींद से जागेंगे, पुनर्जन्म होगा..तभी कर्म कर पायेंगे।

वैसे इस शरीर द्वारा ही कर्म होता है, शरीर नहीं तो कर्म सम्भव नहीं. ..और बिना कर्म के विकास नहीं हो सकता, यानि मृत्यु के बाद बस इंतज़ार करना होता है कि कब शरीर मिले और हम कर्म करना फिर से शुरू करें. जब तक शरीर पुनः नहीं मिलता तब तक सिर्फ झख मारना है, और कुछ नहीं !! हो सकता है है रेलवे लाइन के किनारे पीपल के पेड़ पर प्रेत शरीर में लटके-लटके करोड़ों वर्ष बीत जाएँ !!

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मृत्यु के समय जो भाव-स्थिति ( चिन्तन) व्यक्ति के मानस में होता है व्यक्ति उसी भाव -भूमि में फँसा रहता है मृत्यु के बाद. उसको शरीर तभी मिलेगा जब मिलित हो रहे किसी दम्पत्ति की भाव-भूमि का भाव-तरंग ( thought-frequency) उस व्यक्ति के भाव-तरंग ( thought-frequency) से मिले !
मिलित हो रहे पति-पत्नी के भाव पति के brain-center को जिस प्रकार के भाव -तरंग से उद्दीप्त करते हैं, उसी भाव-तरंग से मिलने वाली आत्माएँ उस पुरुष के एक-एक शुक्राणु में प्रवेश कर जाती हैं. …. फिर पत्नी पति के जिस भाव से रंगिल होती है उसी भाव से मेल खाने वाले शुक्र को वह अपने डिम्ब को निषेचित करने देती है. ( यह दम्पत्ति मनुष्य या किसी योनि के हो सकते हैं. यह उस व्यक्ति के कर्मफल पर निर्भर है. ) जब पुनर्जन्म होता है तब नए शरीर से फिर कर्म करने को मिलता है.
गर्भाधान का क्षण अत्यन्त महत्वपूर्ण होता है. पत्नी जिस भाव-भूमि पर आधारित होकर एवं पति के जिस भाव से भावित यानि रंगिल होकर पति को जिस भाव में उद्दीप्त करती है उसी भाव -तरंग से मेल खाती वाली आत्माएँ पति के शरीर में मस्तिष्क-केंद्र में प्रवेश करती हैं और मेरुदण्ड के मार्ग से विभिन्न शुक्राणुओं में प्रवेश कर जाती हैं. फिर उन करोड़ों शुक्राणुओं में से एकमात्र वही निषेचन करने में सफल होता है जो पत्नी के ( अतः डिम्बाणु के) भाव से मेल खाता है. इसीलिये संतान जन्म में नारी की इतनी महत्वपूर्ण भूमिका है. नारी पुरुष को परिमापित करती है इसलिए उसे ‘माँ’ शब्द से आख्यायित किया गया है. गर्भाधान के समय दम्पत्ति का मनोभाव, विशेषकर नारी का, अत्यन्त महत्वपूर्ण है.

विश्रवा की आसुरिक स्वभाव वाली पत्नी ने गलत काल में, मात्र कामवश ( न कि ऊर्ध्व चिंतन में निमग्न होकर) विश्रवा से मिलन किया. इसी कारण एक आसुरिक प्रवृत्ति से संपन्न आत्मा ने वहाँ शरीर ग्रहण किया. और वह रावण था।
ठीक विपरीत उदाहरण है हिरण्यकशिपु की पत्नी कयाधु का.
कयाधु अत्यन्त सात्विक प्रवृत्ति की थी. अपने पति हिरण्यकशिपु में भी उसका ध्यान ईश्वर पर था (ईश्वर सर्वत्र हैं), न कि उसकी बुराइओं पर. इसीलिये जब उसका अपनी पति के साथ मिलन हुआ तो उसमें दिव्य आत्मा का आगमन हुआ जिससे प्रह्लाद का जन्म हुआ।
उसके बाद गर्भावस्था में भी वह नारद मुनि के पास रही। नतीजा हम सब जानते हैं। दैत्यराज प्रह्लाद हम सबके पूजनीय हैं….
इसीलिये दुर्गा-सप्तशती के उस मन्त्र द्वारा प्रार्थना की जाती है:–
” पत्नीं मनोरमां देहि, मनोवृत्तानुसारिणी
तारिणी दुर्ग संसार सागरस्य कुलोद्भवाम् ।”
[ कुल, वंश, संतति यह सब पत्नी पर बहुत अधिक निर्भर करते हैं ! ]

इसमें इस बात की भी अहम् भूमिका है कि किस प्रकार ( आनुवंशिकी गुणों, सहजात संस्कार के आधार पर) की नारी का किस प्रकार के पुरुष से विवाह हुआ है. यह वर्णाश्रम का महान प्रजनन विज्ञान है।
आजकल देखना-सुनने में आया है अधिकांश गर्भ-धारण के समय दम्पत्ति निकृष्ट चिंतन मे संलग्न रहते हैं. मद्यपान करते हैं, मांसाहार करते हैं, टीवी देख कर मिलन करते हैं। दोनों के आपसी सम्बन्ध सही नहीं होते। पत्नी या पति के मन मे एक-दूसरे के प्रति श्रद्धा या सम्मान नहीं रहता। नारी में एकानुरक्ति नहीं रहती। उनका मानस बहुत पुरुषोंया स्त्रियों के संसर्ग (मानसिक अथवा शारीरिक) से प्रभावित रहता है।
इसलिए उसका डिम्बाणु शुद्ध नहीं रहता क्योंकि नारी को उच्च भाव में निमग्न रहने के लिए एकानुरक्ति अनिवार्य है. …फिर पुरुषों का चारित्रिक अधःपतन हो चुका है. सांसारिक सुख ही जीवन का उद्देश्य है. नारी को प्रसन्न करने के लिए अपने माता-पिता, वंश, कुल, संस्कार, पूर्वजों एवं महत जीवन आदर्शों का वे त्याग कर चुके हैं. ………..समय-बेसमय बिना उर्ध्वचिंतन मे निमग्न हुए दैहिक सुख के लिए या नारी को खुश करने के लिए या उसकी अनिच्छा रहने पर भी मिलन करते हैं। तलाक आम बात हो गई है. यह कितना खतरनाक है इसकी हम कल्पना नहीं कर सकते. मनुष्य के जन्म की, निर्माण की भूमि ही अशुद्ध हो जाती है।

विवाह भी मनमाने ढंग से हो रहा है. Genetic एवं वंश-परम्परा के गुणों का मिलान नहीं होता ! समान गोत्र में या बिना सोचे समझे किसीसे भी विवाह हो रहे हैं. लोग अपने कुत्तों की breeding के लिए नस्ल देखते हैं ! कृषि जगत में नस्ल देखी जाति है …पर यही लोग अपने और बेटे-बेटियों के विवाह में नस्ल /जाति मानने से इनकार कर देते हैं !

ऐसे मिलन के समय अच्छी आत्माएँ उतर ही नहीं सकती ! निकृष्ट प्रवृत्ति वाली, विकृत बुद्धि वाली, पिछले जन्म मे पशु या निम्न -योनि मे जन्मी हुई आत्मा ही वहाँ शरीर ग्रहण करेगी !
पुरुष का मस्तिष्क जिस प्रकार के भाव से ग्रसित होगा उसी भाव वाली आत्माएँ उसके शुक्राणुओं मे प्रवेश करेंगी। यह प्रकृति का अकाट्य सत्य है।

उसके बाद करोड़ों शुक्राणुओं मे स्थित करोड़ों आत्माएँ शरीर पाने की लालसा लिए एकमात्र डिम्बाणु को निषेचित करने के लिए दौड़ पड़ती हैं. रास्ते मे ही अधिकांश मर जाते हैं. एक दूसरे के उपर गिरते-पड़ते भागते हैं ! यह हमारे जीवन का प्रथम संघर्ष होता है ! जीवन पाने के लिए, शरीर पाने के लिए !

एक पुरुष के अनेक आयाम होते हैं. उसके भाव के नाना तरंग होते हैं. प्रत्येक आत्मा उसकी एक-एक भाव-तरंग से मेल खाती हुई होती है.

पर उन करोड़ों मे से केवल एक ही डिम्बाणु को निषेचित कर पाता है. उन करोड़ों मे से एक को चुनना पूरी तरह माँ पर निर्भर करता है. उसके (अतः उसके डिम्बाणु के) मनो-मस्तिष्क की भाव-भूमि उस विशेष क्षण में पति के जिस भाव-तरंग से रंगिल होगी वह उसी भाव-तरंग वाली आत्मा वाले शुक्राणु को वह निषेचित करने देगी ! ……………

यहाँ कई बातें है जो महत्व रखती हैं:—
– यदि शुक्राणु के आनुवंशिकीय गुण डिम्बाणु के आनुवंशिकीय गुणों से निम्न-स्तर के हैं तो डिम्बाणु के nodules को बहुत क्षति होती है और ऐसा निषेचन विकृत बुद्धि वाले संतान को जन्म देता है. ..इसीलिये वैदिक ऋषियों एवं शास्त्रों ने प्रतिलोम विवाह ( श्रेष्ठ वंश/जाति की एवं श्रेष्ठ गुणों वाली नारी का उससे नीचे स्तर के पुरुष से विवाह) को निषिद्ध कहा है. ऐसे विवाह से उत्पन्न संतान जन्मजात रूप से सत्-विरोधी होती है, भले ही वह कितनी भी बुद्धिमान अथवा शक्तिशाली क्यों न हो। इस संतान का सुधार असंभव होता है. इसी कारण से विवाह में वर को हर प्रकार से वधु से श्रेष्ठ होना चाहिए. लड़की का विवाह सदा उच्च ( या कम से कम समान ) वर्ण, जाति, वंश में करना चाहिए और ऐसे पुरुष से जिसकी वह श्रद्धा कर पाए. अन्यथा समाज मे कु-संतानों के बहुतायत हो जायेगी जो अधर्मी होंगे। अपनी बुद्धि एवं शक्ति का उपयोग वे सदा अधर्म के लिए करेंगे। वह सदा पितृ-कुल एवं पितृ- संस्कृति के प्रति विद्रोही होगा। इन प्रतिलोम संतानों से अपने आप ऐसा होगा, जन्मजात प्रवृत्ति के कारण।

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– यदि नारी के भाव-तरंग मिलन के वक़्त निकृष्ट हैं, या उसकी अनिच्छा से मिलन हो रहा है, तो निकृष्ट संतान उत्पन्न होगी. वह पति के निकृष्ट गुणों को संतान का रूप देगी. इसीलिये हम पाते हैं कि अच्छे वंशों के सत्-पुरुषों की संतान भी गलत प्रवृत्ति वाली हो जाती है……. वहीं यदि निम्न-जातियों में भी पतिव्रता पत्नी उच्च-भाव में स्थित हो एकानुरक्ति एवं श्रद्दा-पूर्ण रूप से पति को भी उस क्षण उच्च-भाव संपन्न कर स्वतः-प्रेरणा से मिलन करती है तो वहाँ सु-संतान का ( महान व्यक्तियों का भी) जन्म होता है।
-पति-पत्नी के भाव-तरंग बदलते रहते हैं, इसीलिये एक ही माता-पिता के भिन्न संतान अलग-अलग प्रकार के होते हैं, एक ही वंश-धारा में जन्म लेने के बाद भी।

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