जय जीवदानी
आनंद
जब बात चलती है आनंद की, तो सबसे पहले उस सत् चित आनंद यानि कि परमपिता परमात्मा की अनुभूति का एहसास होता है। एक मन की स्थिति है आनंद, जो हम बाहर ढूंढा करते हैं, और आनंद को लोग भोतिक रूप में खुशी भी कहते हैं।

छोटी-छोटी बातों की उपलब्धि व किसी बड़ी खुशी का इंतज़ार, इसी में पूरी उम्र कट जाती है। हम वास्तविक आनंद जो इस पूरे ब्रह्माण्ड और सृष्टि के साथ निःसर्ग में व्यापक है, उसका उपयोग कर ही नहीं पाते, आप कहेंगे कैसे ? क्या आप जानते हैं मनुष्यों के अलावा कोई भी प्राणी हंस नहीं पाता, ईश्वर ने आनंद की अनुभूति को अभिव्यक्त करने की शक्ति हास्य के रूप में सिर्फ मनुष्य को दी है।
हर दिन हम जब रात को सोते हैं तब ये नहीं सोचते कि हम सुबह उठ पायेंगे कि नहीं, एकदम निश्चित होकर निद्रा देवी के अधीन हो जाते हैं हम, और हर सुबह को देखना खुले नेत्रों से एक नये जन्म की अनुभूति है। उसमें कितना आनंद मनाना चाहिए।
बल्कि आनंद तीन प्रकार के होते हैं एक जो खुद अनुभव किया, एक जो दूसरे के आनंद में मनाया और तीसरा जो इस सृष्टि में व्यापक है। ये फूल, ये कलियां, ये रोज़-रोज़ उगता सूर्य, पंछियों की कलरव, भौरों की गुंजार, फूलों का खिलना, नई पत्तियों की उपज, बहार, वादियां, घाटियां, अगर थोड़े में कहूं तो पूरा निःसर्ग आनंद से सराबोर है, लेकिन हम मनुष्य इनकी उपस्थिति को अनदेखा करके ना जाने किन-किन उपलब्धियों की कामना से दुखी होते रहते हैं। एक कप चाय की चुस्की में जो आनंद है उसे बंद आंखो से अनुभव किया जा सकता है। मां के दुलार में, दोस्ती की किलकार में, परिवार के सानिध्य में, जो आनंद है हम निरंतर उसे अनदेखा करते हैं और अपनी चाहतों का कंबल ओढे सूर्य की उजली किरणों को मन के भीतर घुसने ही नहीं देते, एक खुशबू और हवा का ठंडा झोंका भी गर्मियों में आनंद की अनुभूति कराता है। ये सब अनदेखा क्यों होता है। क्योंकि हमें जो है उसकी खुशी नहीं, जो नहीं उसके लिए दुख मनाने की आदत है। तो कोई शराब, सिगरेट के धुएं के छल्लों में मस्ती ढूंढता है।
कहते हैं-
“गोधन, गजधन, बाजीधन, सब रतन धन खान
जब आवे संतोषधन, सब धन धूरी समान”
ये भी कहा जाता है –
अपने होश बत्ती को switch on और switch off करना जैसे अभिनेताओं की खूबी होती है। वैसे ही हर दुख को भूलकर आनंद की स्थिति में आना हमारा परम कर्तव्य है। एक जीवन की सफलता यह नहीं कि कितना कमाया, कितना पैसे से बड़ा हुआ, परंतु कितना खुश रहा, कितना जीवन को जीया।
मेरी मां एक भजन गाती थी “बाहर ढूंढन जा मत सजनी, पिया घर बीच बिराज रहे री”। खुशी कुछ भी नहीं सिवाय एक मन की स्थिति और ईश्वर की कृपा का अनुभव होना। लोग आनंद ढूंढने डिस्को, कल्बों में जाते हैं। दूसरे को दुख देकर आनंद पाने वाले भी यहां पाये जाते हैं।
आनंद की तीन स्थितियां हैं तामसी, राजसी और सात्विक। इन तीन प्रकार में आनंद पाया जा सकता है।
- तामसी आनंद जो दूसरों को दुख देकर पाया जाये तथा समाज के विरुद्ध जाकर काम किया जाये, खुद को दुख देकर पाया जाये।
- राजसी ऐश्वर्य पाकर आनंद पाना, दान देकर आनंद पाना, शासन करके आनंद पाना।
- और सात्विक आनंद जो दूसरे के सुख में सुख की अनुभूति करना, दूसरे के भले के लिए कार्य करना, ईश्वर की सत्ता का अहसास होना।
आनंद और समाधान का चोली-दामन का साथ है। जहां समाधान नहीं आनंद नहीं और मैं ऐसा भी नहीं कहती कि बंदे को लालसा, और इच्छाओं का त्याग करना चाहिए, परंतु साथ-साथ में आरोग्य और नैतिक जिम्मेदारी को सर्वोपरि रखनी चाहिए।
आनंद और मानसिकता, और मानसिक शक्ति भी साथ-साथ चलते हैं। एक बीमार मानसिकता पालने वाला या क्रूर उदासीन मानसिकता पालने वाला कभी आस-पास निरंतर घटित हो रहे आनंद के बाज़ार में खुद को अकेला ही पाता है। दूसरी ओर मानसिक शक्तियों से जंगल में मंगल और दुख को सुख में पलटने की जिसकी औकात होती है वो किसी भी अवस्था में एक आनंदमयी स्थिति की उत्पत्ति कर सकता है।
सुख और दुख इंसान के जीवन के दो पहलू हैं। ऐसा भी संभव नहीं के हर बार सुख की अनुभूति होकर आनंद की स्थिति रहे। दुख को नकारना विरलों का काम है, लेकिन दुख का आवरण ओढ़कर आनंद को असंभव मानना कमज़ोरी होती है, तो लेने दो चपेट में दुख को उसके कुछ क्षण, लेकिन मैं वो शय नहीं जिसे कष्टों पर मात करना नहीं आता। अंधकार के बाद उजारा निश्चित हैं। तमस को दीप प्रज्जवलित करके नष्ट किया जा सकता है और आनंद कोई ऐसी वस्तु नहीं जिसे आप निम्न स्थिति में प्राप्त नहीं कर सकते। कई बार मैने देखा है, कई लोग हर तरह के सुख प्राप्त होने के बाद, बैंक बैलेंस होने के बाद भी दर्द ही बांटते हैं। जबकि आपके घर रोज़ आने वाली सेविका फूलों के गजरे, और उसकी परिस्थिति के अनुसार गहने और कपड़े पहनकर आती है। ऐसे लोग भी हैं जो सिर्फ आज के लिए कमाते हैं और कल क्या होगा इसके विषय में चिंता नहीं करते, अपितु, ऐसे लोग काम का त्याग करने या छोड़ देने में बिल्कुल देर नहीं लगाते आई/चलाई कि ज़िन्दगी जीते हुए भी वो हमसे ज्यादा खुश रहते हैं। कितना ज्यादा अपनत्व मैने निम्न स्तरों के लोगों में देखा है। इसके विपरीत श्रीमंत अपने परिजनों से बिछड़ जाते हैं। जिस खुशी को प्राप्त करने के लिए उन्होंने अथक परिश्रम किये वो मिलने पर खुद को अकेला पाते हैं। क्या आप जानते हैं ? कि खुशी भी बांटने से बढ़ती है। कोई भी उत्सव अकेले नहीं मनाया जाता.. जहां उत्सव है, वहां समाज है, तो फिर आनंद कहां है ? फिर एक बार कहती हूं अपने दिमाग को कुछ इस तरह अभ्यस्त करिए कि जब चाहें आप आनंद को अपना दास बना सकते हैं। मानों तो आनंद, नहीं तो चारों ओर दुख, यह तो निर्भर करता है, कि आपकी दृष्टि कितनी सकारात्मक या नकारात्मक है।
अब उस सत् चित आनंद, परमात्मा की कहें जो आनंद आपको किसी कर्म, किसी नशे, किसी अनुभूति में नहीं होता। वो आनंद ध्यान, धारणा के मार्फत उस सत्-चित आनंद परमात्मा की अनुभूति से पा सकते हैं। एक निराली मुस्कान की उत्पत्ति होती है। जिसमें कभी मीरा पग घुंघरू बांध नाचती है तो कोई “अनल हक” बोलके झूमता है। तो कभी किसी गिरजाघर में प्रार्थना करते हुए आपकी प्रार्थना में येशू उतर आता है। तो इसका अर्थ क्या हुआ? हम सब एक रंग-मंच की कठपुतलियों के समान हैं। हमारी डोर जिसके हाथ में है उसे जानना अनिवार्य होना चाहिए, नहीं तो आनंद की खोज अधूरी रहेगी। सब कुछ प्राप्त होने पर विरक्ति में आनंद खोजना पड़ेगा। ऐसा नहीं है कि ज्ञानियों को दुख नहीं होता, किन्तु उन्हें दुख से खेलना आ जाता है। अपने कर्मेन्द्रियों, ज्ञानेन्द्रियों पर थोड़ी-थोड़ी विजय, मैं नहीं कहती पूरी विजय, प्राप्त कर लेने से आनंद मनाना संभव हो जाता है। आनंद ढूंढो आज में, क्योंकि कल याद नहीं रहा, और आने वाला कल देखा नहीं। मैं तो बस वर्तमान का एक क्षण हूं। जो निरंतर आनंद दे सकता है। ऐसा भी होता है कि कर्म भोगों के चलते दुख की स्थितियां बनती रहती हैं और बड़े-बड़े योगी पुरुष काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार के अधीन होकर, आनंद गंवाते हैं, तो निष्कर्ष क्या है ? अगर कोई 70% जीता है तो आनंद की मात्रा 35% से ऊपर होनी चाहिए। दुख का भाग कम अनुभव करना चाहिए। मन के घोड़ों की लगाम अपने हाथ में रखनी चाहिए। मन की गति ही आनंद या दुख का कारण होती है। ऐसा भी देखा गया है किसी का पाप किसी का दुख। उदाहरणार्थ एक माली के लिए वर्षा आनंद की स्थिति हो सकती है, लेकिन इसके विपरीत वर्षा में कई कार्यक्रम रद्द हो जाते हैं, जिनसे अनेकों को रोज़ी-रोटी मिल सकती थी।
जीवन की आपाधापी में छोटी-छोटी खुशियों को हम नज़र अंदाज़ करते हैं और दुख मना-मनाकर दूसरों का जीवन भी कष्टदायक कर देते हैं। आज के आधुनिक युग में जहां सभ्यता का ह्रास हो रहा है और यांत्रिकीकरण चरम सीमा पर है, आप कुछ देश ऐसे पाएंगे जिनके वासी भारत वर्ष में आनंद की खोज में सन्यासी होकर विचर रहे हैं। ध्यान और योग का मार्ग अपना रहे हैं। जब उपभोग की चरम सीमा हो जाती है, तो विरक्ति की शुरुआत होती है। जहां पर मनुष्य की सत्ता खत्म होती है। वहां पर ईश्वर की सत्ता शुरु होती है। अपनी अंतर्रात्मा को चैतन्य रखने में बहुत ज्यादा जद्दोजहद हो जाती है। लेकिन ऐसे चैतन्य व्यक्ति को आनंद की अनुभूति निरंतर होती रहती है। ऐसा व्यक्ति जो दूसरों के लिए, समाज के लिए अपना जीवन अर्पण करता है उसे आदर, सम्मान, प्यार, सहारा, अपनत्व इन चीज़ों कमी नहीं रहती। इसके विपरीत जो अपने हित के लिए जीता है, दूसरों के हित से ईर्ष्या करता है, द्वेष रखता है, दुर्भावना रखता है, ऐसा व्यक्ति भीड़ में अकेला होता है।
आधुनिकता के कारण एक दूसरे का संपर्क सिर्फ फोन, मोबाइल, ईमेल, कंप्यूटर इन यंत्रों पर निर्भर हो गया है। अपनापन, सह्दयता, दुख-सुख को बांटना, इन चीज़ों से हम सब वंचित हो गये हैं। एक अंधी दौड़ है। होड़ लगी हुई है। आनंद पीछे छूटता जा रहा है। स्वभाव और स्वास्थ्य दूषित होते जा रहे हैं। हमारे संस्कार की जड़ों से हमारे जीवन की टहनियां बिछड़ रहीं हैं। पत्तों का क्या कहना ? फलों और फूलों का क्या कहना ? जो वृक्ष जड़ नहीं पकड़ेगा वो कैसे लहलहायेगा ? तो निष्कर्ष क्या निकला आपके मूलभूत संस्कारों में आनंद है, उन्हें कस के पकड़े रहें। सत्-चित आनंद मिलेगा। मेरी शुभकामनाएं आपके साथ हैं।
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