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Blog: असत्य को आधार बनाकर समाजसुधार का अनुचित प्रयास !

बहुत सी ऐसी बाते हैं जिसपे लिखने की इच्छा होती है, लेकिन देश के राजनीतिक और सामाजिक हालात ऐसे हैं कि चाह कर भी नहीं लिख पाता | छटपटाते हुए चाहत को सीने में बार-बार अंत्येष्टि करनी पड़ती हैं…

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लेखकः पीयूष चतुर्वेदी
प्रयागराज (उत्तर प्रदेश)

क्योंकि लिखने से जहाँ एक तरफ उन फर्जी समाज सुधारको से बैर मोलना पड़ेगा जो चाहते तो हैं कि समाज में सुधार हो लेकिन ये असत्य और काल्पनिक बातो को आधार बनाकर समाज सुधार करने में लगे हैं, तो दूसरी तरफ कुछ बिना सत्य को जाने समाज का द्रोही घोषित कर सकते हैं | इसलिए अब सिर्फ मौन रहकर इन समाजसुधारको को देखता रहता हूँ क्योंकि वर्तमान राजनीतिक और सामाजिक हालात इस कदर दूषित हो चुके हैं कि मौन रहना सर्वथा ऊचित हैं | लेकिन समाज सुधारकों द्वारा प्रयोग में किये जाने वाले असत्य और काल्पनिक बातो का आधार ही हैं जो समाज में सुधार करने के बजाय समाज को और दूषित करता जाता हैं | समाज में दो तरह के समाज सुधारक होते हैं , पहला वो जो सत्य के साथ खड़ा होने का साहस करते हैं और दुसरे वो जिनके पास सत्य के साथ खड़ा होने का साहस नहीं होता हैं तो वो सत्य के प्रतिबिम्ब ( जो सत्य जैसा प्रतीत तो होता हैं लेकिन वस्तुतः सत्य नहीं होता ) का ओट लेकर अपने मनोरथ को सिद्ध करने में लगे रहते हैं या यूँ कहे कि समाज सुधार में लगे रहते हैं | ये मूल बाते हैं जिसको अनदेखा करके समाज सुधारक, समाज सुधारने निकल पड़ते हैं, जिसका दुष्परिणाम ये होता हैं ( वस्तुतः हो रहा हैं ) कि समाज सुधरने के बजाय और दूषित होता जा रहा हैं, दिन-प्रतिदिन समाज के नैतिक मूल्यों में गिरावट देखी जा रही हैं , दिन प्रतिदिन समाज में वैमंश्वता का नया अंकुर फूटता ही जा रहा हैं |

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उदाहरण स्वरुप, समाज सुधारको ने ऋषि पराशर (महर्षि वशिष्ठ के पौत्र) के पुत्र कृष्णद्वैपायन (वेद व्यास) को उनकी माता सत्यवती (जो कि एक मल्लाह जाति में पली-बढ़ी थी) के आधार पर शुद्र घोषित कर दिया, और समाज सुधारको ने उनके पिता ऋषि पराशर को विस्मृत कर दिया | समाज सुधारको ने ऐसा इसलिए किया क्योंकि उनको लगा कि जब वो महर्षि वेद व्यास को शुद्र वर्ण का घोषित कर देंगे तो उन्हें समाज में रहने वाले सभी वर्ण के लोगो को समझाने में आसानी होगा कि देखो ! शुद्र वर्ण के वेद व्यास ने सनातन धर्म के कई धर्म ग्रंथो कि रचना कि हैं , जिसको सभी वर्णों के लोग आदर और श्रद्धा से पढ़ते-सुनते हैं | देखो ! शुद्र वर्ण में जन्मे वेद व्यास कैसे अपने कर्मो से ब्राह्मण बन गए | देखो ! जब शुद्र वर्ण में जन्मे वेद व्यास द्वारा रचित ग्रंथो को पढ़ने या सुनने में हमे आपत्ति नहीं हैं तो फिर समाज में रहने वाले अन्य वर्ण के लोगो से छुआ-छूत क्यों ? देखो ! जब शुद्र वर्ण में जन्मे वेद व्यास अपने धर्म और संस्कृति कि रक्षा के लिए इतने बड़े-बड़े ग्रन्थ लिख गए तो तुम्हे भी चाहिए कि तुम सब अपने धर्म और संस्कृति कि रक्षा के लिए एक होकर सभी वर्णों के साथ कन्धा से कन्धा मिलाकर रहो |

इन समाज सुधारको का उद्देश्य ऊचित था और हैं भी लेकिन मार्ग असत्य पर आधारित हैं | इन्होने समाज में ऊँच-नीच करने वालो के विरुद्ध ऊँचा स्वर करने बजाय या फिर उसे दण्डित करने के विचार के बजाय , समाज को सुधारने के लिए एक झूठ का सहारा लिया जिसका दुष्परिणाम ये हो रहा हैं कि समाज तो सुधर नहीं रहा बल्कि जात-पात, ऊँच-नीच के कारण व्यक्ति से व्यक्ति के बीच कि खाई दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही हैं | समाज सुधारकों को चाहिए था कि वर्ण व्यवस्था का दुरुपयोग करने वालो के विरुद्ध आवाज उठाए, वर्ण व्यवस्था के नाम पर ऊँच-नीच का भेद रखने वालो को समाज से बहिष्कृत करने का बीड़ा उठाए , लेकिन ये सब करने के बजाय उन्होंने आसान कार्य यह समझा कि समाज को सुधारने के लिए वेद व्यास के पिता ऋषि पराशर को विस्मृत कर वेद व्यास शुद्र वर्ण में जन्मा व्यक्ति घोषित कर दे | यहाँ ध्यान रखे, ये समाज सुधारक कर्मणा वर्ण व्यवस्था के पक्षधर तो होते हैं , लेकिन इसी कर्मणा वर्णव्यवस्था को साबित करने के लिए पहले ये ये साबित करते हैं कि वेद व्यास जन्म से शुद्र थे | जिस प्रकार नया मुल्ला प्याज बहुत खाता हैं , वैसे ही  जब कोई नया नया समाज सुधारक बनने का प्रयास करता हैं या फिर धरम शास्त्रों को पढना अभी शुरू ही करता हैं तो उसके हाथ सबसे पहले एक ही सूत्र आता हैं “जन्मना जायते शूद्रः …..”, इसी सूत्र को अंतिम सत्य मानकर अगर वह रुक गया तो निश्चित ही न तो वह समाज का सुधार कर सकता हैं, और ना ही स्वयं का | इन समाज सुधारको से जब इस सूत्र का रेफरेंस माँगा जाता हैं तो कोई इसे वेद का बताता हैं , कोई मनु स्मृति का तो कोई-कोई स्वयम्भू विद्वान तो इसे गीता का भी बता देते हैं, किसने कहा इनको यह भी ज्ञात नहीं, लेकिन समाज सुधार ये इसी सूत्र के आधार पर करेंगे |

खैर मुझे समाज सुधार कि कोई इच्छा नहीं हैं लेकिन आज से करीब 7-8 वर्ष पूर्व जब धर्म, दर्शन और अध्यात्म कि गहरी जानकारी रखने वाले मित्रो से जुड़ने का मौका मिला तब मुझे भी उपरोक्त सूत्र हाँथ लगा था और मैं भी उसी सूत्र को अंतिम सत्य मानता था, फिर इसके आधार पर चर्चाये भी शुरू हुयी, फिर धीरे-धीरे रस बढ़ता गया, फिर बहुत से दार्शनिकों को पढ़ने का मौका मिला, चाहे वो आचार्य शंकर हो,  महर्षि अरविन्द हो,  आचार्य श्रीराम हो, आचार्य रजनीश हो, या फिर आचार्य चाणक्य | बहुत सी चीजे सामने आती गयी,  धुंध छटनी शुरू हुई और पिक्चर क्लियर होता गया और सत्य प्रत्यक्ष होता गया | इसलिए आप भी यदि वास्तविक तस्वीर देखना चाहते हैं तो उपरोक्त सूत्र पर ही ना टिके, भारतीय धर्म शास्त्र के पास अपार भण्डार हैं , मत पढ़िए समाज सुधार के लिए, इस विषय पर शोध के प्रयास से पढ़िए, उधार के प्रमाणपत्र को ढोते रहने से बेहतर हैं कि आप इस विषय पर स्वयं धर्म ग्रंथो का अध्ययन करे और फिर किसी निष्कर्ष पर निकले | रेलवे बुकस्टाल पर मनोहर कहानियां या सरस सलिल देखने के अपेक्षा  उसी रेलवे स्टेशन के गीता प्रेस के काउंटर से उपनिषद या रूचि अनुसार अन्य ग्रंथो की पुस्तके खरीदना शुरू करिए और समय निकाल कर स्वयं ही पढना शुरू करिए , कल्पना से भी मूल्य में सस्ती पुस्तके आपको अनमोल लगेंगी | फिर आपको  कोई भी समाज सुधारक झूठ और कल्पना को आधार बनाकर आपको भ्रमित नहीं कर पायेगा | समाज सुधार का कार्य समाज सुधारको के लिए छोड़ दीजिए, हम-आप स्वयं का सुधार कर ले, इतना पर्याप्त होना बहुत हैं |