ये माना कि परंपराओं ने हमारी संस्कृति की नींव को मजबूती दी, कुछ परंपराएं अच्छी भी हैं और कुछ परंपराएं ऐसी भी हैं जिन्हें समय के साथ बदल देना चाहिए…आखिर “हमारे यहां हमेशा से ऐसा होता आया है” की लकीर को कब तक पीटते रहेंगे हम….यदि इस आधार पर हम पुरानी कट्टर परंपराओ को यूं ही बनाए रखेंगे तो अफसोस, आज के तेज़, और तेज़…सबसे तेज़…..होने के दौर में हम काफी पिछड़ जाएंगे…शकुन-अपशकुन जैसी बातें भी इन परंपराओं से अलग नहीं हैं….लेकिन परंपराओं, वर्जनाओं और शकुन-अपशकुन को हमने एक और चीज़ के साथ शामिल कर लिया है और वो है आस्था…जी हां, आस्था के नाम पर भी हम अपनी दिनचर्या में बहुत से कामों को शक की नज़र से देखते हैं..कि अगर ऐसा कर दिया तो वो देवता नाराज़ हो जाएंगे और अगर वैसा कर दिया तो दूसरे देवता के कोप का भागी बनना पड़ेगा…और अगर वैसा कर दिया तो दुर्भाग्य से हमें कोई बचा ही नहीं सकता…वगैरह…वगैरह…, लेकिन सवाल ये हैं कि हमें बचाने वाला है कौन ? सबसे पहले तो अपने आप को बचाने वाले सिर्फ हम है…बाकियों का नंबर बाद में आता है।

असल में हमारी सोच ही वैसी ही बन जाती है जब हम हर बात को आस्था या श्रद्धा की कसौटी पर देखने लगते हैं….ऐसे ही ‘पीरियड्स’ शब्द, जी हां मैं मासिकचक्र की बात कर रही हूं…. जिसपर आज भी खुलकर बात नहीं होती…ये नाम सुनते ही हम असहज महसूस करने लग जाते हैं….और शायद इस समय आप भी……..जब कि ये एक स्वाभाविक प्रक्रिया है जिसपर खुलकर बात तक करना आज भी वर्जित है….लेकिन मुझे लगता है उन औरतों या बच्चियों के लिए अगर हम बात नहीं करेंगे तो और कौन करेगा ?…जिन्होंने कभी अपने गांव के बाहर कदम तक रखकर नहीं देखा…..पढ़ाई जिनसे आज भी कोसों दूर है…..उन्हें जो बचपन से सिखाया जाता है या बताया जाता है उनके लिए बस वही सही है…..जहां आज भी महिलाओं की शिक्षा दर बेहद कम है…उन चार दीवारी में रहने वाली औरतों को क्या पता कि बाहर सूरज का उजाला कितना अधिक है और आप अमावस के चांद की तरह आज भी बुझी, दबी और कुचली हुई हैं…उन्हें आज भी नहीं पता कि पर्सनल हाईजीन उनके लिए कितनी ज़रूरी है ? जिन्हें ये नहीं पता कि उन्हें पीरियड्स में घर से खदेड़ देने की नहीं बल्कि खुराक की ज़रूरत है।

अफसोस तो इस बात का है कि आज भी बहुत से ऐसे गांव या इलाके हैं जहां पीरियड्स के दौरान पांच दिन तक घर की किसी भी महिला को रसोई में जाना वर्जित है, यहां तक कि उन दिनों में उसके खाने-पीने और रहने का इंतज़ाम घर के किसी एक कोने में या घर से बाहर एक कोठरी में कर दिया जाता है, या फिर उनका बिस्तर नीचे ज़मीन पर लगा दिया जाता है कि जैसे वे कोई अछूत हो…. उसके बर्तन भी अलग रखे जाते हैं और सुनने में ये आता है कि रसोई घर अपवित्र हो जाएगा अगर वो उन दिनों रसोई में गयी और अगर मंदिर में जाएंगी तो पाप की भागीदार बनेगी…।

मैं सोचती हूं कि यदि आज के संदर्भ में मैट्रोपोलिटन सिटीज़ की महिलाओं की बात की जाए तो क्या उन पांच दिनों में कोई कामकाज़ी महिला इतने दिनों तक बेकार बैठ सकती है ? कभी नहीं…कॉर्पोरेट सैक्टर में तो इकट्ठी पांच दिन की छुट्टी लेने पर पर्मानेंट छुट्टी भी मिल जाती है…तो फिर आज भी इस परंपरा के मामले में हमारे घरों की बड़ी-बुज़ुर्ग महिलाएं अपनी सोच में मैच्योर क्यों नहीं हुई ? क्या इन पांच दिनों में घर के सभी काम बंद कर दिए जाएं ? क्या जिन घरों में एक ही महिला होती है और घर में केवल बैडरिडन बुज़ुर्ग और छोटे बच्चे…तो क्या उन घरों की महिलाएं पांच दिन अपने बच्चों और बुज़ुर्गों को भूखा छोड़ एक कमरे में दुबक कर बैठ सकती है ?…कतई नहीं। जहां मजबूरी है वहां पाप नहीं लगता क्या ?….।
चलिए अब इस बारे में धार्मिक नज़रिया भी देख लिया जाए कि हमारे शास्त्र क्या कहते हैं?
- इन पांच दिनों तक स्त्री को कोई भी धार्मिक कार्य नहीं करना चाहिए
- भोजन नहीं पकाना चाहिए
- पति का संग नहीं चाहिए
- मदिर नहीं जाना चाहिए
- गुरू या बड़े बुज़ुर्गों के पास नहीं जाना चाहिए और न ही उनके चरण स्पर्श करने चाहिए
चलिए अब जान लेते हैं कि इस बारे में लोकमान्यताएं क्या कहती हैं?
- श्रृंगार नहीं करना चाहिए
- पौधों को पानी नहीं देना चाहिए, वो खराब हो जाते हैं
- ज़मीन पर सोना चाहिए
- आचार को नहीं छूना चाहिए, वो खारब हो जाता है
- घर से बाहर कदम नहीं रखना चाहिए, नहीं तो बुरी नज़र और बुरे प्रभाव में आ जाओगे।
अब जान लेते हैं कि वैज्ञानिक दृष्टिकोण इस बारे में क्या कहता है ?
वैज्ञानिक नज़रिए से यदि देखा जाए तो महिलाओं को मासिक धर्म के दौरान इन्फैक्शन का खतरा बढ़ जाता है लेकिन ये सिर्फ और सिर्फ एक शारिरिक प्रक्रिया है।
शायद इसी वजह से पुराने समय में इन विचारों को लोकमान्यताओं, परंपरा और वर्जनाओं का रूप दे दिया गया जिसे आज भी बहुत सी जगहों में माना जाता है, यहां तक की कई सभ्य परिवारों में भी ऐसा देखने को मिलता है। क्या आपको लगता है कि ऐसे समय में महिलाओं के साथ अछूतों जैसा व्यवहार किया जाए। घर-परिवार में उसे असहज महसूस कराया जाए,… ये गलत है….जबकि हम सभी जानते हैं कि मासिक चक्र के बिना कोई भी महिला संपूर्ण नहीं होती….इसलिए हमें अपनी सोच को बदलना होगा।
आज पहले से अधिक पर्सनल हाइजीन के बारे में अवेयरनेस बढ़ी है तो फिर क्यों हम आज भी पुराने विचारों को ढो रहे हैं। अपने घर की बच्चियों व महिलाओं के साथ बुरा व्यवहार कर रहे हैं, उन्हें असहज महसूस करवा रहे हैं….! इस बारे में वर्जनाओं से ज्यादा हमें ज़रूरत है उन्हें जागरूकता देने की, जिनके पास न ही तो पर्याप्त साधन हैं और न ही डीजिटल मीडिया की जानकारी जहां से वो जागरूक हो सकें। तो फिर उन्हें बताएगा कौन कि उनके लिए क्या सही है और क्या गलत ? उन्हें पांच दिन अलग रखने से ज्यादा अच्छा है उन्हें पांच दिनों में पर्सनल हाईजीन का ध्यान रखने के बारे में बताया जाए, उनके अच्छे स्वास्थ्य के बारे में अच्छी जानकारी दी जाए, उन्हें अच्छी खुराक दी जाए ताकि वे एनिमिक न हों।
इस बारे में जागरूकता के लिए हमारी वेबसाइट और ब्लॉग्स को अधिक से अधिक शेयर करें, हो सकता है कईयों की सोच बदल जाए।
धन्यवाद, आपकी शुभचिन्तक, मनुस्मृति लखोत्रा
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