1.
हुज़ूर आरिज़-ओ-रुख़्सार क्या तमाम बदन
मिरी सुनो तो मुजस्सम गुलाब हो जाए
उठा के फेंक दो खिड़की से साग़र-ओ-मीना
ये तिश्नगी जो तुम्हें दस्तियाब हो जाए
वो बात कितनी भली है जो आप करते हैं
सुनो तो सीने की धड़कन रबाब हो जाए
बहुत क़रीब न आओ यक़ीं नहीं होगा
ये आरज़ू भी अगर कामयाब हो जाए
ग़लत कहूँ तो मिरी आक़िबत बिगड़ती है
जो सच कहूँ तो ख़ुदी बे-नक़ाब हो जाए
2
इस रास्ते के नाम लिखो एक शाम और
या इस में रौशनी का करो इंतिज़ाम और
आँधी में सिर्फ़ हम ही उखड़ कर नहीं गिरे
हम से जुड़ा हुआ था कोई एक नाम और
मरघट में भीड़ है या मज़ारों पे भीड़ है
अब गुल खिला रहा है तुम्हारा निज़ाम और
घुटनों पे रख के हाथ खड़े थे नमाज़ में
आ जा रहे थे लोग ज़ेहन में तमाम और
हम ने भी पहली बार चखी तो बुरी लगी
कड़वी तुम्हें लगेगी मगर एक जाम और
हैराँ थे अपने अक्स पे घर के तमाम लोग
शीशा चटख़ गया तो हुआ एक काम और
उन का कहीं जहाँ में ठिकाना नहीं रहा
हम को तो मिल गया है अदब में मक़ाम और
3.
कहीं पे धूप की चादर बिछा के बैठ गए
कहीं पे शाम सिरहाने लगा के बैठ गए
जले जो रेत में तलवे तो हम ने ये देखा
बहुत से लोग वहीं छट-पटा के बैठ गए
खड़े हुए थे अलावों की आँच लेने को
सब अपनी अपनी हथेली जला के बैठ गए
लहू-लुहान नज़ारों का ज़िक्र आया तो
शरीफ़ लोग उठे दूर जा के बैठ गए
ये सोच कर की दरख्तों में छाँव होती है
यहाँ बबूल के साए में आ के बैठ गए
<script async src=”//pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js”></script>
<script>
(adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({
google_ad_client: “ca-pub-4881153144211866”,
enable_page_level_ads: true
});
</script>
4.
तुम्हारे पाँव के नीचे कोई ज़मीन नहीं
कमाल ये है कि फिर भी तुम्हें यक़ीन नहीं
मैं बे-पनाह अँधेरों को सुब्ह कैसे कहूँ
मैं इन नज़ारों का अंधा तमाशबीन नहीं
तिरी ज़बान है झूटी जम्हूरियत की तरह
तू इक ज़लील सी गाली से बेहतरीन नहीं
तुम्हीं से प्यार जताएँ तुम्हीं को खा जाएँ
अदीब यूँ तो सियासी हैं पर कमीन नहीं
तुझे क़सम है ख़ुदी को बहुत हलाक न कर
तू इस मशीन का पुर्ज़ा है तू मशीन नहीं
बहुत मशहूर है आएँ ज़रूर आप यहाँ
ये मुल्क देखने लाएक़ तो है हसीन नहीं
ज़रा सा तौर-तरीक़ों में हेर-फेर करो
तुम्हारे हाथ में कॉलर हो आस्तीन नहीं
5.
ये ज़बाँ हम से सी नहीं जाती
ज़िंदगी है कि जी नहीं जाती
इन फ़सीलों में वो दराड़ें हैं
जिन में बस कर नमी नहीं जाती
देखिए उस तरफ़ उजाला है
जिस तरफ़ रौशनी नहीं जाती
शाम कुछ पेड़ गिर गए वर्ना
बाम तक चाँदनी नहीं जाती
एक आदत सी बन गई है तू
और आदत कभी नहीं जाती
मय-कशो मय ज़रूरी है लेकिन
इतनी कड़वी कि पी नहीं जाती
मुझ को ईसा बना दिया तुम ने
अब शिकायत भी की नहीं जाती
(साभार- कविताकोश)