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यादगार लम्हेंः जहां मनुष्य की अंतरात्मा भी उस पीयूष-स्नान से सिक्त होकर चेतना के एक ऊर्ध्व-लोक में पहुँच जाती है !

कुंभ मेला : भारतीय संस्कृति एवं अस्मिता का प्रतीक 

भारत को देखना है तो कुम्भ मेला देखिये !  गंगा -यमुना -सरस्वती त्रिवेणी संगम पर प्रयाग में जब अमृत का आधान होता है तब मनुष्य की अंतरात्मा भी उस पीयूष -स्नान से सिक्त होकर चेतना के एक ऊर्ध्व -लोक में पहुँच जाती है. इस कुम्भ मेला का नाम आते ही एक अद्भुत विहंगम दृश्य आँखों के सामने आ उपस्थित होता है. क्षितिज से क्षितिज तक उमड़ता जन -समुद्र। नर-नारी, साधु – संन्यासी, जटाजूटधारी जोगी और भस्म रमाये जयकारा लगाते नागा बाबाओं का हुज़ूम। सत्संग, कीर्त्तन, संध्यावंदन, आरती, माला जपते भक्तगण; कोई चिंतन में निमग्न तो कोई ध्यान में और कोई प्रवचन सुनने में ! भौतिक विज्ञान को चुनौती देते हठयोगी और सिद्धपुरुष। संगम में स्नान करते श्रद्धालुओं की अंतहीन पंक्तियाँ। भारतवर्ष  के आलोक और संस्कृति का चेहरा है कुम्भ !

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लेखक- राय यशेन्द्र प्रसाद
संस्थापक, आर्यकृष्टि वैैदिक साधना विहार        वैदिक संस्कृति के अन्वेषक, लेखक, फिल्मकार
भू.पू. सीनियर प्रोड्यूसर एवं निर्देशक, ज़ी  नेटवर्क
भू.पू. व्याख्याता ( भूगोल एवं पर्यावरण), मुम्बई

समूचा भारतवर्ष उमड़ कर प्रयाग की त्रिवेणी पर उपस्थित हो जाता है. कहते हैं पूरी पृथ्वी पर मनुष्यों का इससे बड़ा जमावड़ा और कहीं नहीं होता। कहीं यदि मधु का क्षरण हो रहा हो तो चींटियों के अनंतदल जिस प्रकार वहाँ  पहुँच जाते हैं, ठीक उसी प्रकार जन्ममृत्यु के इस भवसागर में  त्रिवेणी संगम पर जब अमिय -वारि का क्षरण होता हो तो मुमुक्षु खिंचे चले आएँगे ही. ऋग्वेद की वह उक्ति बरबस ध्यान में आती है — मधु वाता ऋतायते मधुं क्षरन्ति सिन्धवः !  नदियों से मधु अर्थात् जीवनीय ऊर्जा का क्षरण हो रहा है, यज्ञकर्म में लगे हुओं को मधु प्राप्त हो रहा है. गंगा -यमुना-सरस्वती की त्रिवेणी पर अभ्यंतर तक स्नान एक यज्ञ ही तो है.

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कुंभ मेला भारतीय संस्कृति, सभ्यता, अस्मिता का एक जीवन्त रूप है.  दुनिया के लिए यह एक अचंभा है कि सदियों से करोड़ों लोग इतने अनुशासित रूप से कैसे एकत्रित होते हैं और कैसे परमतत्व की साधना में समर्पित हो जाते हैं.  विदेशों से आये अनेक लोगों को इसका रहस्य आज तक समझ नहीं आया. परन्तु यहाँ हुई विलक्षण अनुभूति को मानने को वे भी विवश हो जाते हैं.  भारत की एक सबसे बड़ी विशेषता जो कुम्भ में सबसे निखर कर सामने आती है वह है — गुरु परम्परा। कुम्भ में आये लोग सबसे पहला सवाल यही पूछते हैं कि ‘आपका गुरु कौन है ?’  यह गुरु परम्परा ही है जो वैदिक सनातन धर्म को अनादि काल से धारण करती चली आ रही है.  जो अव्यक्त है,  निर्गुण है, अवांङमानसगोचरम्  है, उसे व्यक्त, सगुण देहधारी गुरु के द्वारा ही पाया जा सकता है, अन्य कोई उपाय नहीं. जिसमे दया है वह दयावान है। जिसमे प्रेम है वही प्रेमी है। जिसमे बल है वही बलवान  है। वर्ना दया, प्रेम, ताकत आदि सिर्फ एक ख्याल हैं, कल्पना। इसीलिये जिसमे ईश्वरत्व है वही ईश्वर है। जिसमे भगवत्ता है वही भगवान् है। भग का अर्थ है ऐश्वर्य। – हर प्रकार का ऐश्वर्य, सम्पन्नता, हर प्रकार का पराक्रम, हर प्रकार की लक्ष्मी, ज्ञान,सम्पूर्ण रूप से वैराग्य – सम्पूर्ण रूप से इन्हीं छः गुणों को भग कहते हैं.  “ऐश्वर्यस्य, समग्रस्य, वीर्यस्य, यशसश्रीयः! ज्ञान वैराग्योश्चैव षड् नाम् भग इतीर्यते”. भगवान् – वह जीवन्त  व्यक्ति है जिसमे यह सब अवस्थित है। इसीलिए गुरु का केंद्रीय महत्व है भारतवर्ष की सभ्यता और संस्कृति में.  हम कुम्भ में देखते हैं अनगिनत गुरु साधुओं के अनगिनत जमात। सभी श्रद्धालु किसी न किसी गुरु के आश्रय में रहते हैं. साथ ही साथ अन्य संतों और ज्ञानियों से भी मिलने का सौभाग्य उन्हें मिलता है. कुम्भ मेला में आने से आम जनों को सभी सांसारिक चिंताओं से मुक्त होकर भगवद चर्चा, सत्संग, साधना और देश के विभिन्न भागों से आये संत महात्माओं के दर्शन करने का सुअवसर प्राप्त होता है. कहते हैं हिमालय की कंदराओं एवं अन्य गुप्त क्षेत्रों से अद्भुत सिद्धगण कुम्भ में सामान्य साधू के रूप में स्नान के लिए आते हैं. प्रारब्ध एवं निज कर्मों के अनुसार यदि कोई योग्य पात्र मिला तो उस पर वे अवश्य कृपा करते हैं और अपने स्वरुप को प्रकट करते हैं. कुम्भ को लेकर ऐसी अनगिनत अलौकिक कथाएँ और किंवदंतियाँ प्रसिद्ध हैं. भारत की लोकश्रुतियाँ ऐसे चमत्कारों और कथाओं से पटी पड़ी हैं.

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भारत के इतिहास में कुम्भ मेला की शुरुआत कब हुई यह कहना मुश्किल है. आजकल बहुत सारे विद्वान् चीनी यात्री ह्वेन सांग के लेख को आधार बनाकर सम्राट शिलादित्य ( हर्षवर्द्धन ) के शासन काल से, अर्थात्  850 ईस्वी से कुम्भ का प्रामाणिक आरम्भ मानते हैं. परन्तु नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ़ डिज़ाइन, बेंगलुरु, के प्रो. विभुदत्त बराल एवं हरिहरसूदन टी. ने अपने शोध में इसकी शुरुआत 3464 ईसा पूर्व, हड़प्पा मोहनजोदाड़ो से भी पहले, पाई है. यह नितांत सम्भव है क्योंकि वैदिक सभ्यता प्रचलित धारणाओं से कही अधिक पुरानी है, और प्रयाग की त्रिवेणी जैसे स्थान आध्यात्मिक समागमों के कील-केंद्र रहे हैं. उपरोक्त अन्वेषकों ने यूनानी यात्री मेगास्थनीज़ के विवरणों में  चौथी सदी ईसा पूर्व में सम्राट चन्द्रगुप्त के 74 दिनों के कुम्भ प्रवास का उल्लेख पाया है. पुराणों में प्रयाग में माघ पूर्णिमा के अवसर पर महर्षि विश्वामित्र के स्नान की चर्चा है.  1302 ईसा पूर्व में ‘महर्षि ज्योतिष ‘ ने माघ पूर्णिमा स्नान के महत्व को बताया है. प्राचीन काल में प्रयाग के आसपास सुरम्य वन हुआ करते थे जिनमे ऋषि मुनियो के आश्रम थे. त्रिवेणी स्नान हेतु भारतवर्ष के कोने -कोने से श्रद्धालु और संतजन आते रहे हैं. हाँ, कुम्भ को परिवर्द्धित करने का श्रेय अवश्य आदि शंकाराचार्य को जाता है. उन्होंने संन्यासियों के दसनामी सम्प्रदाय बनाए और सभी का एक-एक अखाड़ा हुआ. आदि शंकारचार्य ने कुम्भ मेले में इनके विशेष समागम की परम्परा स्थापित की. इसके अतिरिक्त मुग़ल आक्रांतों ने जब भारत को पराधीन कर लिया और सनातन धर्म की संस्कृति और सभ्यता को ध्वस्त करना शुरू किया तो हिन्दू समाज एवं संस्कृति की रक्षा हेतु विभिन्न मतों  के संन्यासियों के अखाड़े अस्तित्व में आए. इनके साधु सामरिक कलाओं में भी निष्णात थे.  यह सब अखाड़े भी कुम्भ में एकत्रित होते हैं. इसीलिए हम कई अखाड़ों के साधुओं को अश्वारोहण एवं तलवार संचालन करते हुए देखते हैं. इनमें से कई हठयोग और नाथ सम्प्रदाय की गुह्य प्राचीन परम्पराओं से जुड़े हैं. आदि शंकराचार्य के प्रभाव से जनमानस बड़ी संख्या में कुम्भ में आने लगा.

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कुंभ मेला आखिर है क्या ? भारतवर्ष की संस्कृति और परम्परा का कोई आयाम या कोई बात ऐसी नहीं है जो प्रकृति के किसी सूक्ष्म विज्ञान से जुड़ी हुई  न हो. सनातन धर्म कॉस्मिक साइंस है यानि ब्रह्माण्ड का विज्ञान। वैदिक ऋषिगण को यह पता चल गया था  कि जो ब्रह्मांडीय ( मैक्रोकॉस्मिक) स्तर पर है एक क्षुद्र कण के ( माइक्रोकॉस्मिक) स्तर पर भी वही है. सभी ब्रह्मांडीय प्रक्रियाएँ सूक्ष्म से सूक्ष्म कणों में भी घटित होती हैं क्योंकि यह सम्पूर्ण ब्रह्मांड वस्तुतः एक जीवंत सत्ता है. जिस प्रकार हमारे शरीर में अनंत अदृश्य  सूक्ष्म  जीवाणु रहते हैं उसी प्रकार हम मनुष्य भी विशाल ब्रह्मांड के दृष्टिकोण से पृथ्वी ग्रह के सूक्ष्म जीव हैं ! जब हम उपग्रह से लिए गए आकाश गंगा के चित्र देखते हैं तो हमारा सौर-मण्डल उसके किसी कोने में धूलिकण जैसा प्रतीत होता है. इस प्रकार यह स्वाभाविक है कि ब्रह्मांड में हुए सभी प्रक्रियाओं का हम पर भी प्रभाव पड़ता है.

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वैदिक ऋषियों ने साधना और तपस्या के जरिये योगबल से सृष्टि प्रक्रिया की जानकारी प्राप्त की. उन्होंने पाया कि जब भौतिक पदार्थों का निर्माण नहीं हुआ था तो मात्र चेतना का ही अस्तित्त्व था. क्रम – क्रम से घनीभूत होते हुए घात -प्रतिघात से त्रिगुण ( सत्त्व, रज और तम ) उत्पन्न हुए. ब्रह्मा, विष्णु, महेश ही त्रिधारा से ये त्रिगुण सृष्ट हुए. तामसिक शक्तियाँ आसुरिक कही जाती हैं क्योंकि वे अज्ञानता और अन्धकार की और ले जाते हुए जड़त्व पैदा करती हैं. चूँकि हम इन शक्तियों को चेतन जीवों के रूप में देखते हैं इसलिए उन्हें असुर कहते हैं. वैदिक विज्ञान के अनुसार प्रत्येक शक्ति और प्रत्येक कण एक जीव है. जो महान सात्त्विक शक्तियाँ हैं उन्हें हम देवता कहते हैं क्योंकि वे जीवन को प्रकाश ( )द्यौ ति से भर देते हैं. अंग्रेजी के ‘डेइटि’ और ‘डिवाइन’  ( दिव्य ) शब्द इसी से आए है. यह देव और असुर शक्तियाँ सृष्टि के प्रत्येक स्तर में हैं. उनका पारस्परिक संघर्ष चलता ही रहता है. इसे हम अपने मन में अच्छे और बुराई के बीच चलते  युद्ध के रूप में भी पाते हैं. इसी द्वन्द्व से ही हम कुछ अच्छे और कुछ बुरे परिणाम प्राप्त करते हैं. इसी प्रक्रिया को देवताओं और असुरों द्वारा समुद्र -मंथन कहा गया है. वासुकि कुण्डलिनी के प्रतीक हैं जिसके मूलाधार से सहस्रार चक्र के बीच चेतना का प्रवाह चलता रहता है. मूलाधार चक्र ही मंदार पर्वत है. इस कुण्डलिनी में तीन मुख्य नाड़ियाँ हैं. सामान्यतः इड़ा या पिंगला नाड़ियों में बारी -बारी से हमारा श्वास चलता रहता है. बाईं नासिका से इड़ा का सम्बन्ध है और दाईं से पिंगला का. वैदिक विज्ञान इन्हे गंगा और यमुना कहता है. जब हम गुरु के निर्देश से योगसाधना के द्वारा श्वास पर नियंत्रण प्राप्त करते हैं तो वह सुषुम्णा नाड़ी में प्रवाहित होने लगता है जो सरस्वती के रूप में जानी जाती है. सुषुम्णा में श्वास के प्रवाहित होने पर महत ज्ञान की प्राप्ति होती है, बोध क्षमताएँ सामान्य से बहुत अधिक हो जाती हैं और सिद्धियों की प्राप्ति होती है. शरीर में इन तीनों नाड़ियों का मिलन -स्थान  दोनों भ्रुवों के बीच आज्ञा चक्र के समीप माना गया है. गंगा यमुना का सरस्वती से यह मिलन ही त्रिवेणी संगम कहलाता है जहाँ गुप्त सरस्वती का प्राकट्य होता है. यह तो हुई मानव शरीर और चेतना की बात. इसी को यदि हम भारतवर्ष के शरीर में देखें तो गंगा और यमुना का मिलान प्रयाग में होता है किसे संगम कहते हैं. ब्रह्मांडीय प्रक्रियाओं के अनुसार गुप्त सरस्वती का भी वहीं प्राकट्य होकर दोनों नदियों से संगम होता है. संत कबीर ने भी काइ न नाड़ियों और त्रिवेणी संगम का विस्तृत उल्लेख किया है और आध्यात्मिक साधना की मुख्य प्रक्रिया कहा है.

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भौगोलिक रूप से गंगा और यमुना आज भी हैं और प्रयाग में उनका संगम भी होता है. परन्तु सरस्वती अब लुप्त हो चुकी हैं और उनके चिन्ह देश के पश्चिमी भाग में ही पाए गए हैं. प्रयाग या प्रयाग की दिशा में किसी काल में  सरस्वती नदी का प्रवाह था इसके कोई भौगोलिक चिन्ह आज तक नहीं मिले हैं. परन्तु प्रयाग में त्रिवेणी संगम की इस पौराणिक मान्यता से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि किसी सुदूर काल में संभवतः सरस्वती यहाँ बहती हो. फिलहाल तो वे अन्तः सलिला ही हैं.

प्रयाग के त्रिवेणी संगम का इस प्रकार माहात्म्य हुआ जो सदा ही रहता है. परन्तु कुछ विशेष ग्रह दशा में संगम में जीवनीय ऊर्जाओं का प्रभाव बहुत अधिक बढ़ जाता है. पुराणों  के अनुसार मेष राशि  में बृहस्पति एवं सूर्य और चन्द्र के मकर राशि में प्रवेश करने पर माघ अमावस्या के दिन कुम्भ का पर्व प्रयाग में आयोजित किया जाता है। यह अवस्था प्रत्येक 12 वर्षों के बाद आती है क्योंकि बृहस्पति ग्रह को सूर्य की एक परिक्रमा पूरी करने में  हम मनुष्यो के 12 वर्ष लग जाते हैं. दूसरे शब्दों में, उसी मेष राशि में उसी स्थिति में आने में बृहस्पति को 12 वर्ष लग जाते हैं.  इसलिए प्रयाग में प्रत्येक 12 वर्ष पर पूर्ण कुम्भ मेला लगता है और प्रत्येक 6 वर्षों पर अर्द्ध -कुम्भ।

पृथ्वी का एक वर्ष  देवताओं के लिए एक दिन होता है. इस तरह देवताओं का कुम्भ उनके लोक (आयाम) में उनके 12 वर्ष बाद लगता है जो मनुष्य के लिए 144 वर्ष हुआ. इस अवसर पर, यानि प्रत्येक 144 वर्ष पर लगने वाले कुम्भ को महाकुम्भ कहते हैं. पिछला महाकुम्भ प्रयाग में 2013 में लगा था और अगला 2157 ईस्वी में लगेगा।

यह ग्रह -दशा वह स्थिति है जिस मुहूर्त्त में समुद्र -मंथन से उत्पन्न अमृत -कुम्भ से कुछ अमृत की बूँदे त्रिवेणी संगम पर गिरी थीं. समुद्र मंथन एक सृष्टि की प्रक्रिया है जो प्रकृति के प्रत्येक  स्तर एवं प्रत्येक आयाम में अनुस्यूत है. भौतिक पदार्थों की उत्पत्ति यानि इस ब्रह्माण्ड के जन्म से पहले ही यह समुद्र -मंथन हुआ था. यहाँ समुद्र का अर्थ पृथ्वी का समुद्र नहीं है. यह चेतना की कॉस्मिक यानि सूक्ष्म ब्रह्माण्डीय तरंगों का समुद्र है. वासुकि उस चेतन -प्रवाह के प्रतीक हैं. हम यह कह सकते हैं कि वे ब्रह्माण्ड की कुण्डलिनी के प्रतीक हैं.  जैसा कि हम पहले ही चर्चा कर चुके हैं प्रकृति में यह समुद्र -मंथन प्रत्येक स्तर और प्रत्येक आयाम एवं प्रत्येक कण में होता है. देवताओं और असुरों के द्वारा किये गए इस मंथन ने विष निकलता है, फिर नाना प्रकार के रत्न, लक्ष्मी और अमृत -कलश भी. इस कलश के लिए असुरों और दैत्यों में संघर्ष शुरू हो गया। अमृत कलश को दैत्यों से बचाने के लिए देवराज इन्द्र के पुत्र जयंत बृहस्पति, चन्द्रमा, सूर्य और शनि की सहायता से उसे लेकर भागे। भगवान विष्णु ने मोहिनी रूप धारण कर असुरों को भरमाए रखा जिससे उन्हें अमृत नहीं मिला। इस कथा द्वारा यह बताया गया है कि आसुरिक प्रवृत्तियाँ सांसारिक माया -मोह में फँसा देती हैं और व्यक्ति अज्ञानता का शिकार होकर अपना असली उद्देश्य अमृत -तत्त्व की प्राप्ति भूलकर भवसागर के बंधन में पड़ा रह जाता है. इसलिए हमें अपने भीतर दैविक यानि सात्त्विक प्रवृत्तियों को बढ़ाना चाहिए। क्योंकि भगवान् विष्णु सारा अमृत देवताओं को ही देते हैं. सांकेतिक कथा में देवता और असुर 12 दिनों तक अमृत के लिए भागदौड़ करते रहे. इस दौरान कलश से चार बार अमृत छलक कर चार स्थानों पर गिर पड़ा. यह चार ग्रह दशाएँ उन चार स्थानों पर प्रत्येक 12 वर्षों के अंतराल पर आती हैं, और उस वक़्त वहाँ अमृत -तत्त्व उत्पन्न हो जाता है. भारत वर्ष में यह चार स्थान प्रयाग, हरिद्वार, नासिक और उज्जैन हैं और वहाँ उन ग्रह दशाओं में कुम्भ मेला लगता है. इनमें प्रयाग का विशेष माहात्म्य है. अन्य तीन स्थानों की ग्रह दशाएँ भिन्न हैं. इस प्रकार, भारत में प्रत्येक तीन वर्षों के उपरान्त चार भिन्न तीर्थों पर एक पूर्ण कुंभ मेला लगता है.

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हम मनुष्य प्रकृति के अंग हैं, उससे अलग नहीं हैं. समस्त प्रकृति एक चेतन जीव  है जिसे हम माँ आद्या शक्ति कहते हैं. इसलिए जो प्रकृति में होता है वह हमारे मनोमस्तिष्क, स्नायु संस्थान और चेतना में भी होता है. उपरोक्त कुंभ में जो अमृत वहाँ प्रकट होता है वह हमारे अंतर में भी प्रकट हो इसी उद्देश्य से हम सब उस समय उस स्थान में जाते हैं. सिर्फ जाकर नदी में स्नान करने से ही नहीं होता है बल्कि अपने अंतस में देव शक्तियों द्वारा असुरों को पराजित भी करना होता है. तभी अमृत की उपलब्धि होती है. इसीलिए कुंभ में मुख्य मुहूर्त से लम्बे समय पहले से और काफी समय बाद तक  कल्पवास का विधान है. गुरु और संत महात्माओं के सान्निध्य में सत्संग, भगवद नाम का कीर्त्तन -चिंतन -मनन करते हुए हम अपने भाव को उच्च सात्विक अवस्था में ले जाना चाहते हैं ताकि उस अमृत -तत्त्व को प्राप्त कर सकें।  हमारे अंतर की त्रिवेणी संगम में अमृत का उद्भव हो ताकि हम रोग, शोक, ग्रहदोष और विवेकभ्रष्ट होने से बच कर जीवन को बेहतर बना सकें।  इसी से व्यक्ति, दंपत्ति, गृह, समाज, राष्ट्र का सर्वांगीण उत्कर्ष होगा और हम शान्ति, समृद्धि एवं पराक्रम प्राप्त कर के सत्य, न्याय एवं धर्म की स्थापना कर सकेंगे ।

कुंभ मेला का यह गूढ़ रहस्य और उद्देश्य है. परन्तु हमारा मन बड़ा चंचल है. दुनिया के रंग -बिरंगे आकर्षण उसे अपने में बाँधे रहते हैं. माया की दुनिया का चुंबकीय आकर्षण नाना प्रकार के भोगों में हमें  लिप्त किया हुआ है. यहीं पर भारतीय संस्कृति ने एक कमाल का काम किया है. ऋषियों ने दुनिया के इन सभी आकर्षणों और आयोजनों को भी भगवद-मय बना दिया है और इतना सुन्दर और मोहक कर दिया है कि उन्ही के जरिये हमारा मनोनिवेश प्रभु – चरणों में होने लगता है !  इसीलिए भारतवर्ष के सभी पर्व त्यौहार, मेले, आयोजन, सांस्कृतिक अनुष्ठान, सजावट, गीत -संगीत, वास्तु, खान-पान, वस्त्र -परिधान, नाटक, नृत्य, खेलकूद, रीति -रिवाज़ आदि सभी आध्यात्मिक हैं और भगवान् में विनियोग किये गए हैं.

कुंभ मेला का मूल तत्त्व आध्यात्मिक है. उसी तत्त्व के आधार पर कुंभ के सांस्कृतिक और  सामाजिक आयाम भी हैं. पृथ्वी पर मनुष्यों का यह सबसे बड़ा जमावड़ा है. भारतीय सभ्यता विविधताओं की पोषक है. वैदिक विज्ञान वर्णाश्रम के जरिये जीवन के प्रत्येक आयाम में सभी विशिष्टताओं और वैशिष्टयों का परिपूरण करता है. इसीलिए भारत में जीव -जंतु, वनस्पति से लेकर भाषा, परिधान, सम्प्रदाय, क्षेत्रीय संस्कृतियों में जैविक विविधताओं यानि बायोडायवर्सिटी की इतनी भरमार है. सभी विविधताओं को एकसूत्र में पिरोता है सनातन धर्म।  भारतवर्ष राष्ट्र का आधार ही सनातन धर्म है, राजनीति और प्रशासन तो महज़ उसके वाहक हैं. इसीलिए आधुनिक लोगों को भारत राष्ट्र की अवधारणा आसानी से समझ नहीं आती. जिस प्रकार गंगा अपनी सभी सहायक नदियों और अपने में पड़े सभी वस्तुओं को लेकर समुद्र में समा जाती है, उसी प्रकार सनातन धर्म सभी सम्प्रदायों और विविधताओं को समेटकर एकाकार कर देता है. इसीलिए हिन्दू संस्कृति कोई ‘रेलिजन’ नहीं है, कोई ‘मज़हब’ नहीं है, बल्कि एक जीवन विज्ञान है जो सार्वभौमिक और सनातन एवं शाश्वत है. सृष्टि के आदि से अंत तक इसका अस्तित्व है.  इसे किसी मनुष्य अथवा सम्प्रदाय ने जन्म नहीं दिया है. कुम्भ मेला इसीलिए सम्पूर्ण विश्व के लोगों को आकर्षित करता है. नाना देशों से भिन्न सम्प्रदायों के लोग यहाँ आकर अपनापन अनुभव करते हैं और जीवनीय शक्ति का बोध उन्हें होता है. भारत की अनुपम आध्यात्मिक विरासत की एक झलक उनके प्राणों को नवीन ऊर्जा से भर देती है. सभी जीवों और चराचर प्रकृति से एकात्म -बोध भला किसे अनुप्राणित न करेगा ! यूनेस्को ने इसे मानव सभ्यता के अमूल्य धरोहरों की सूची में स्थान दिया है.

गीत, संगीत, नृत्य कलाकारों को अपनी प्रतिभा दिखाने के लिए कुम्भ एक अभूतपूर्व अवसर है. हस्तकला और  लोककलाओं के कलाकारोंके लिए बहुत बड़ा बाज़ार मिलता है तथा उनका संवर्द्धन भी होता है. आधुनिक काल में बड़ी -बड़ी कम्पनियों के उत्पादों और सेवाओं के प्रचार के लिए मेला का व्यापक इस्तेमाल किया जा रहा है. सामाजिक समस्याओं के प्रति जागरूकता फैलाने का भी अवसर यहाँ प्राप्त होता है. यहाँ आए श्रद्धालु जो प्राप्त करते हैं, जो सीखते हैं वह उनके साथ पूरे देश में फ़ैल जाता है. कुंभ मेला की साज -सज्जा, तोरण द्वार, धार्मिक झाँकियाँ एवं अनवरत चल रहे नाना अनुष्ठान मन को बाँध लेते हैं और ऊर्ध्वगति -संपन्न कर देते हैं.

आधुनिक जीवनशैली में तनाव एक बहुत बड़ी समस्या है. सभी भाग रहे हैं, भागे जा रहे हैं, आज किसी के पास अपने लिए भी वक़्त नहीं है. फलस्वरूप, स्वास्थ्य की नयी समस्याएँ उत्पन्न हो गयी हैं, परिवार टूटते जा रहे हैं, दाम्पत्य जीवन में अशांति है, संतान -संतति संस्कारहीन होकर अपनी संस्कृति से दूर होते जा रहे हैं, नौकरियों में तनाव है और पश्चिम की तरह मेट्रो एवं शहरी क्षेत्रों में अकेलापन एक बहुत बड़ी समस्या के रूप में  उभर आया है. ऐसे में कुंभ का महत्त्व और भी बढ़ जाता है.  जिस कुंभ में शांति की खोज में दुनिया -भर से लोग आते हैं वहाँ अपने ही देश के लोग, विशेषकर युवा, क्यों न लाभ उठाएँ।  इंटरनेट की सोशल मीडिया एक आभासी दुनिया है, पर कुंभ मेला है एक जीवंत सामजिक पटल ! यहाँ हम सबसे रुबरु होते हैं और विचारों तथा संस्कृतियों का अनुपम आदान -प्रदान होता है. स्वाधीनता संग्राम में भी कुंभ मेला को विचारों के प्रसार का माध्यम बनाया गया था.

कुंभ अपने आप में सबको समाहित कर लेता है. यह पूर्णता का प्रतीक है. इसीलिए यज्ञादि सभी धार्मिक अनुष्ठानों और मांगलिक कार्यों में पहले कलश -स्थापना की जाती है और उसमें समस्त देवताओं का आवाहन किया जाता है.  कुंभ मेला तो स्वयं ही अमृत -कलश है. आर्य परम्परा का जीवंत प्रतीक कुंभ मेला अनादि काल से भारतीय संस्कृति एवं अस्मिता का उत्सव मनाते आ रहा है.

साभार : संस्कृति गंगा न्यास, उत्तर प्रदेश पर्यटन द्वारा प्रकाशित ‘कुंभ’ 2019 स्मारिका