मेरे अनुसार अस्पृश्यता सदाचार यानि hygiene का मामला है, जातिवाद का पर्यायवाची नहीं. पहली बात तो यह है कि वर्ण व्यवस्था खाने-पीने के लिए नहीं बनाई गयी है और ना ही किसी को नीचा दिखाने के लिए, यह सब गलत अवधारणाएँ हम लोगों के ज़हन में बैठ गई हैं, और हम वर्णाश्रम का नाम सुनते ही उसे अस्पृश्यता से जोड़ देते हैं !

संस्थापक, आर्यकृष्टि वैदिक साधना विहार
वैदिक संस्कृति के अन्वेषक, लेखक, फिल्मकार
भू.पू. सीनियर प्रोड्यूसर एवं निर्देशक, ज़ी नेटवर्क
भू.पू. व्याख्याता ( भूगोल एवं पर्यावरण), मुम्बई
अस्पृश्यता में मेरा पूरा विश्वास है, अस्पृश्यता से मेरा भाव स्वच्छता व शुभ भावनाओं से है। मैं अपनी जाति क्या, अपने रिश्तेदारी एवं खानदान में भी सभी के हाथ का छुआ नहीं खाता, दूसरों का पहना कपड़ा, इस्तेमाल किया हुआ अन्य सामान मैं नहीं इस्तेमाल करता। जो व्यक्ति बाह्य एवं आतंरिक सदाचार या अच्छी भावनाएं नहीं रखता उसके हाथ का छुआ खाना मैं बिलकुल पसंद नहीं करता. .मैं ऐसा किसी भेदभाव की वजह से नहीं कह रहा अपितु ऐसा स्वच्छता, स्वास्थ्य व भावना की दृष्टि से देखते हुए कह रहा हूं।..मैंने यह अनुभव किया है कि मेरे परिवार में भी जब जो जिस मनोदशा में खाना बनाता है, या परोसता हैं… उस मनोदशा का प्रभाव भोजन पर पड़ता है।
होटल आदि में जब खाना पड़ता है, तब भरसक ऐसी चीज़ें खाता हूँ जो अपेक्षाकृत कम स्पर्श में आईं हों…. कई बार तो बेहरे आदि को बिना हाथ साफ किए या साफ कपड़े न हो तो, यदि गंदा लगा है, तो बिना खाए उठ के चल दिया…………….
मैं पूरी तरह मानता हूँ और अनुभव करता हूँ कि स्पर्श से भौतिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक संक्रमण होता है। प्रत्येक व्यक्ति का अलग-अलग असर होता है, एक परिवार के अन्दर ही, बाहर की क्या कहूँ.
…अभिवादन आदि में नमस्कार-प्रणाम की मुद्रा बेहतर है, हर किसी से हाथ मिलाने में सकुचाता हूँ।
मैं यह मानता हूँ कि एक-साथ बैठ कर या एक-दूसरे का जूठा खा लेने मात्र से प्रेम नहीं हो जाता। ऐसा होता तो भाई भाई का मर्डर नहीं करता और पति-पत्नी में तलाक नहीं होता।
एक साथ खाना खाने वाले अपने सहोदर भाई भी एक-दूसरे की हत्या तक कर देते हैं ! …. आज परिवार-परिवार में जो आपसी कलह है वह सब नहीं होता यदि एक-दूसरे के हाथ के खाने में इतनी शक्ति है ! बेटा माँ-बाप को नहीं पूछता है, माँ और पिता को वृद्धाश्रम में डाल आते हैं। सबके हाथ का खाना खा कर कौन सा तीर मार सकता है कोई ???!!!! कुछ नहीं !
सिर्फ खाने की बात की जाये ! भोजन पकाने वाले का, परोसने वाले का और जिसके घर में बन रहा है उन सबका प्रभाव पड़ता है ! भोजन क्या, हर वो चीज़ जो व्यक्ति स्पर्श करता है उसपर उसका प्रभाव पड़ता ही है.
खाना बनाते हुए व्यक्ति की मानसिक भावनाएँ खाने को संक्रमित करती हैं. उसके अन्य गुण भी. प्रत्येक व्यक्ति का एक Force-field होता है. इसे जैव- चुम्बकत्व अथवा ऊर्जा-क्षेत्र भी कहते हैं. यदि आप थोड़े से भी संवेदनशील हैं तो किसी व्यक्ति के समीप उसका प्रभाव अनुभव कर सकते हैं. रोज़मर्रा की ज़िंदगी में हम करते भी हैं ! ….स्पर्श से तो और भी गहरा प्रभाव पड़ता है………. इसीलिये दूसरे व्यक्ति का इस्तेमाल किया हुआ वस्त्र, बिछावन और अन्य व्यक्तिगत वस्तुओ का इस्तेमाल नहीं करना ही स्वास्थ्य एवं सदाचार का नियम है।
सर्वश्रेष्ठ भोजन वह है जो अपने हाथों से पकाया हुआ हो. शांत-चित्त से प्रभु का स्मरण करते हुए खुद पकाइए. स्वपाक से उत्तम और कुछ नहीं. आध्यात्मिक साधना पर जो आगे बढ़ता है उसे स्वपाक अपनाना ही पड़ता है।
उसके बाद नंबर है माँ -पिता के हाथों से पके अन्न का। सहोदर भाई का एवं अविवाहिता बहन का, फिर पत्नी का… साधारणतः एक व्यक्ति को उपरोक्त के अलावा और किसी के हाथों से पका अन्न खाना ही नहीं चाहिए !
खाने को लेकर लोगों में मान्यता ये भी है, खासकर भात (चावल) के लिए, क्योंकि भात अत्यन्त संवेदन-शील होता है. आस पास की तरंगों से तुरत संक्रमित हो जाता है. इसलिए इसे “कच्चा खाना” भी कहते हैं. स्वयं या अपने माँ, पिता, पत्नी, भाई एवं अविवाहिता बहन के अतिरिक्त किसी के हाथ का भात नहीं खाना चाहिए. चाहे वह अपने कुल का हो या जाति का। सिर्फ हर दृष्टिकोण से सदाचारी धर्मप्राण ब्राह्मण के हाथ पका भात सब कोई खा सकता है. क्योंकि सद-वंशजात ब्राह्मण में सतोगुण की प्रधानता होती है, इसलिए. वैसे आजकल ऐसे ब्राह्मण नगण्य हैं.
कई लोगों का मानना है कि अपने परिवार से बाहर के हाथ से फल-मूल लेना ही श्रेयस्कर है या तला हुआ कोई चीज़, तलने से प्रभाव कम हो जाता है। जो सदाचारी नहीं है उसके हाथ से भोजन निषिद्ध है।
आप जिस व्यक्ति के हाथ का भोजन करेंगे उसका प्रभाव आयेगा ही. किसी से प्रेम करने के लिए उसके हाथ का भोजन लेना आवश्यक नहीं है. जो लोग ध्यान प्रक्रिया से साधना करते हैं, संवेदनशील हैं, अध्यात्म के पथ पर साधक हैं……..वह पल-मात्र में प्रभाव अनुभव कर सकते हैं। उनका विकास ही अवरुद्ध हो जाता है ! …आजमा के देख लीजिये ! मैं यदि कदाचित गलत व्यक्ति का स्पर्श किया हुआ खा लेता हूँ तो ध्यान ही नहीं लगा पाता ठीक से !
हाँ, यदि मैं उस कष्ट को, दुष्प्रभाव को झेलने के लिए किसी कारणवश तैयार हूँ तो कोई बात नहीं ! तब खा सकता हूँ. दुष्प्रभाव तो आयेगा ही. राम ने शबरी के हाथो से खाया, उसका जूठा. दुष्प्रभाव आया ही, पर एक महत उद्देश्य के लिए श्री राम ने उसे स्वीकार किया, पर यदि आप यह कहें कि राम ने सिखाया कि जिस-तिस के हाथों से बना खा लो, तो यह गलत होगा !
मष्तिष्क अत्यन्त सूक्ष्म कम्पुटर है। मानव-शरीर भी। कहीं से भी संक्रमण हुआ तो कार्यक्षमता घट जाती है !
एक रडार को नेगेटीव तरंग भेज कर निष्क्रिय किया जा सकता है, यह हम सब जानते हैं ! उसे प्रकार हमारा मन है, मष्तिष्क है और शरीर है !
जैसा अन्न, वैसा मन……….. जैसा मन वैसा तन ! ……..यह एक महान विज्ञान है ! कोई इसे practical माने या न माने कोई फ़र्क नहीं पड़ता प्रकृति को, वह अपने विज्ञान से चलती है. किसी को छोटा-बड़ा बनाने का इस से कोई सम्बन्ध ही नहीं है।
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