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Happiness is Free: हमारे बुज़ुर्ग हमसे कुछ नहीं मांगते, बस थोड़ी सी इज्ज़त मांगते हैं, दे सकते हैं क्या ?

जब हम छोटे थे तो क्या कभी हमने ये सोचा था कि हमारी अम्मा और बाऊजी कभी बूढ़े हों जाएंगे ? और एक दिन इस दुनिया से हमेशा के लिए चले जाएंगे… नहीं न ? मुझे भी ऐसा ही लगता था, लेकिन जैसे-जैसे बड़ी हुई तो समझ आया कि जन्म, बाल्यकाल, युवा अवस्था, बुढ़ापा और मृत्यू जीवन की ऐसी अटल सच्चाईयां हैं जिन्हें कभी झुठलाया नहीं जा सकता। जिन्हें कभी रोका भी नहीं जा सकता। हम सब असल में एक-एक दिन करके मृत्यू की ओर ही बढ़ रहे हैं। मेरे पिता जी जब गुज़रे तो कितना वक्त तब ये समझने में लगा कि हां सच में अब पिता जी इस दुनियां में नहीं रहे…वो मर गए हैं और अब कभी वापिस नहीं आएंगे..किसी अपने के लिए मर गए शब्द का इस्तेमाल कर पाना कितना मुश्किल होता है ये मैने तब जाना।

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Manusmriti Lakhotra, Editor – theworldofspiritual.com

उस वक्त मेरी माता जी भी कितनी उदास और अकेली सी रहने लगी थी…तब ये भी समझ आया कि लाइफ पार्टनर कि जगह हम बच्चे कभी नहीं ले सकते…क्योंकि हमारे पास वक्त ही नहीं है उनसे बात करने के लिए। मां बहुत सी बातें हमसे छुपाया करती थी कि कहीं हम ये जानकर उदास न हों कि वो बहुत दुखी हैं। वक्त के साथ धीरे-धीरे वो संभल गई ताकि उनके बच्चे उन्हें दुखी देख निराश न हों। आज वो अपनी दुनियां अपने बच्चों में ही देखती हैं। लेकिन एक सवाल मैं अक्सर अपने आप से करती हूं कि क्या हम बड़े होकर या अपनी शादी के बाद अपनी दुनियां अपने मां-बाप में देखते हैं ? नहीं….। हम गद्दार हो जाते हैं अपने फर्जों के प्रति, अपने मां-बाप के प्रति। हमारे पास हर चीज़ का हल तो है लेकिन उनकी उदासी दूर करने के लिए कोई उपाय नहीं है। उनकी ज़रूरतें पूरी करने के लिए न ही वक्त है और न ही पैसे।

कई दिनों से मेरा बहुत से परिवारों के साथ मिलना-जुलना हो रहा है…बहुत सी औरतें मुझसे मिलने मेरे घर आयीं…..उनके पास जब तक बैठती न जानें कितनी बार तो वो आर्शीवाद देतीं…कभी मैं उनके बूढ़े हाथों को देखती, कभी उनके मासूम चेहरे को, कभी उनकी तज़ुर्बेदार बातों को सुनती….तो कभी उनकी ज़िंदगी के संघर्ष भरे किस्सों को…..लेकिन उनमें से ज्यादातर बुज़ुर्ग माताएं बात करते-करते इमोशनल हो जाती….क्योंकि वो अपने घर में बहुत दुखी थी….उनकी बातों से पता चला कि उन्हें न तो कोई खाने-पीने के लिए पूछता है…और न ही उनकी दवा का कोई ख्याल रखता है…वो घर के एक कोने में पड़ी रहती हैं जैसे कोई पुराने कपड़ों की गठरी बांध कर अपने घर के किसी कोने में रख देता है। उनकी आंखों की नमी और मासूमियत बहुत कुछ बयां कर रही थी कि वो दुखी हैं। मैने अपनी ओर से उन्हें खुश रहने और अपने अच्छे से रख-रखाव के लिए कई तरह के सुझाव दिए लेकिन इस उम्र में वो खुद क्यां करें, जहां उनके कांपते हाथ ठीक ढंग से पानी तक तो पी नहीं सकते। पता है हमारे बुज़ुर्ग हमसे कुछ नहीं मांगते, बस…थोड़ी सी इज्ज़त मांगते हैं, जो हम दे नहीं सकते।

आज शहरों में बड़े-बड़े घर ज़रूर हैं लेकिन उनमें एकांकी जीवन बिताते बुज़ुर्गों को कोई पूछने वाला नहीं है। आज एकल परिवारों की बढ़ती संख्या की वजह से बच्चों को दादा, दादी, ताऊजी, ताईजी, चाचा, चाची वगैरह वगैरह रिश्तों के बारे में पता ही नहीं है। हमारे घरों में हमारे बुज़ुर्गों के रख-रखाव का गिरता स्तर, और वृद्धाआश्रमों की बढ़ती संख्या इसी बात की ओर इशारा कर रही है कि हमारे समाज में बुज़ुर्गों की स्थिति ठीक नहीं है। ये मुद्दा कोई छोटा नहीं है, वे हमारे परिवार के स्तंभ हैं, जिन्होंने हमें उंगली पकड़कर चलना सिखाया, पूरी शिद्दत के साथ हमारी परवरिश की आज वो बेकार कैसे हो सकते हैं ?

पिछले तीन-चार महीने से कोरोना के चलते हम सब लॉकडाउन में जैसे-तैसे अपना वक्त गुज़ार रहें हैं लेकिन जो आंकड़े सामने आए वो ये हैं कि इन दिनों में महिलाओं व बुज़ुर्गों के साथ मारपीट और डॉमैस्टिक वॉएलेंस के मामले बहुत अधिक बढ़ गए हैं। वो घर से बाहर निकल नहीं सकते और घर में उनकी स्थिति ठीक नहीं।

इस बारे में पहल हमें अपने घर से ही करनी होगी। हमारे अपने घरों में हमारे बुज़ुर्गों की स्थिति ठीक करने के लिए हमें आगे आना होगा। हो सकता है यदि आपके घर का कोई सदस्य पत्नी या बच्चे उनके साथ सही व्यवहार नहीं करते तो आपको अपने बूढ़े मां-बाप के लिए स्टैंड लेना होगा। यदि आप अपने घर के आसपास भी किसी बुज़ुर्ग के साथ दुर्रव्यवहार होता देखें तो उनके लिए भी आगे आएं।

एक बात हमेशा याद रखें कि यदि हम खुद अपने बुजुर्गों के साथ बुरा व्यवहार करते हैं तो वास्तव में ऐसा करके हम अपने बुरे संस्कार अपने बच्चों को ही वापिस दे रहे हैं…आज आप यदि उनके साथ बुरा व्यवहार करते हैं तो हो सकता है कि कल जब आप बूढ़े हो जाएंगे तो आपके बच्चे भी आपके साथ ऐसा ही व्यवहार करेंगे और तब शायद आपको कोई बचाने वाला भी न हो। इस बारे में सोचिएगा ज़रूर।

धन्यवाद- आपकी शुभचिन्तक, मनुस्मृति लखोत्रा