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Happiness is Free : जो हो रहा है, जैसा चल रहा है, वैसा चलने दीजिए, कितना सही ?

कई बार हम समाज की घिसी-पिटी रिवायतों पर पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलते रहते हैं, जिसका हम चाहते हुए भी विरोध नहीं कर  पाते, क्योंकि कहीं न कहीं हम भी उन रिवायतों के पक्ष में होते हैं, इसलिए हमारी मानसिकता ही यही होती है कि जो चल रहा है, जैसा भी चल रहा है, उसे चलने दो…शायद इसीलिए ही हमारे देश में कुप्रथाओं और सामाजिक कुरीतियों का विरोध देरी से हुआ, जिन्हें रोकने में कई शताब्दियां लग गई, शायद यही कारण है कि उन कुरीतियों की जड़ें आज भी कई जगह अपनी मजबूती बनाए हुए है।

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Manusmriti Lakhotra, Editor – theworldofspiritual.com

फैशन के नाम पर हमारा पहनावा, हमारे गैज़ेट्स, हमारा हेयर-स्टाइल तो बदलता है लेकिन हम अपनी संस्कृति को नहीं बदलना चाहते। जिस वजह से हमारे समाज का बहुत बढ़ा हिस्सा आज भी अचेतन है, न ही उन्हें कानून का पता है और न ही अपने अधिकारों का, यही कारण है कि वो हमेशा किसी न किसी ऐसे नायक की तलाश में रहते हैं जो उन्हें इंसाफ दिलाएगा..उनके अधिकार दिलाएगा…सामाजिक कुरीतियों से मुक्ति दिलाएगा, लेकिन उन्हें खुद कुछ नहीं करना है…खुद केवल सहन करना है..क्योंकि उन्हें सहन करने की आदत हो गई है…उनकी न ही तो खुद की कोई समझ है और न ही कोई इच्छा…और इसी वजह से वे हर बार अपना कीमती वोट झूठे आश्वासन देने वाले भ्रष्ट नायकों को दे डालते हैं। जो उन्हें धर्म के नाम पर, सामाजिक कुरीतियों के नाम पर उलझाए रखते हैं। अगर आप अपनी सुरक्षा की बात करते हैं तो इसमें गलती किसकी है ? ज़ाहिर सी बात है कमी हमारी ही है क्योंकि हम एक ही चीज़ से, एक जैसी ही परिस्थितियों से, एक जैसे हालातों से, एक जैसे लोगों के साथ चिपके रहना चाहते हैं, खानदानी रिवायतों को पीढ़ी-दर-पीढ़ी घसीटने की आदत जो हो गई है हमें, हमारे देश में यह एक बड़ी समस्या है। जिसका असर हम पर और हमारी अगली पीढ़ी की सोचने समझने की शक्ति और तर्क करने की क्षमता पर पड़ता है…क्योंकि हम गलत बातों पर “क्यों” कहना नहीं सीखते ? जीवन को सुरक्षित रखने की अगर हम बात करते हैं तो असल में हमारा जीवन पल-पल जोखिम भरे रास्तों से गुज़रता है। यही सोच कर करोड़ों लोग इसलिए ज़िंदगी में जोखिम नहीं उठा पाते कि न जाने मंज़िल मिलेगी भी या नहीं ?

देखा जाए तो इस छोटी सी ज़िंदगी में करने के लिए बहुत से काम हैं लेकिन हम अपनी ज़िंदगी को दूसरों के तरीके से जीने के लिए छोड़ देते हैं और दूसरे हमारी इसी कमज़ोरी का फायदा उठाते रहते हैं क्योंकि हम इमोशनल फूल जो ठहरे। कभी अपने लिए तो जीए ही नहीं हम, जबकि हमें ये नहीं पता कि हम और कितना जीएंगे ? इसलिए खुद को बदलिए, जो आपको अच्छा लगता है वो कीजिए क्योंकि बदलाव ही फिर से जीने की नयी तमन्ना जगाता है।परिवार, लोग, समाज ये सब आपको कुछ न कुछ कहते रहेंगे, लेकिन मदद करने कभी आपके साथ नहीं आएंगे…तो फिर इन सबसे डर कर अपनी एक अच्छी ज़िंदगी जीने के अहम फैसले हम क्यों नहीं ले सकते ? एक बार दूसरों के बारे में छोड़ कर अपने बारे में सोचिए, अपने आप से प्यार करके देखिए…आपको अच्छा लगेगा…।

धन्यवाद आपकी दोस्त, मनुस्मृति लखोत्रा